Thursday, January 2, 2014

इश्क़-ए-दास्ताँ...

मरते भी है हम पर और न भी करते है,
अजब है उनकी भी इश्क़-ए-दास्ताँ ।

दर्द उसने ही दिया जो मेरा अपना था,
वरना, गैरों को कहाँ फुरसत मुझसे इश्क़ लड़ाने की ।

बड़े शौक से बढाते है पैमाने-दर-पैमाना,
और कहते है कि बहकते क्यूँ हो अभिनव ।

घाव बड़े गहरे है, चेहरे पर जो मेरे थे,
ज़ख्म फिर हरे हुए, वक़्त-ए-मरहम से जो ठहरे थे ।

एक वक़्त ही नहीं गुज़रता तेरे बिना,
बाकी सब गुज़र जाता है ।

बुझती जा रही है आग अंदर ही अंदर,
एक शख्स दफ़न हुआ हो जैसे ।

बड़ी बेचैन सी सांसें लिए फिरता रहा,
अजीब सी कश्मकश की ख़ातिर ।

कितनी चाहतें लिए फिरता है दिल,
कई हसरतों पर अश्क़ बिख़र से जाते है ।

बड़ा गहरा है मन का समुन्दर,
कई बार डूबा हूँ खुद अपने भवर में ।

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