अजब सी नासमझी है वक़्त की,
सोचता कुछ हूँ और करता कुछ ।
अजीब सी है ज़िन्दगी मेरी,
कि, गुनाह बहुत है या गम मेरे ।
बड़े शौक-ए-हसरत में गुज़ार दी ज़िन्दगी,
बस एक छोटे से सफ़र की ख़ातिर ।
आतिश-ए-सुकून को तरसती रही उम्र-भर रूह मेरी,
इक उर्स बाद दफ़न हो, अब आराम पाया है ।
ख़ताओं और माफ़ियों में क्या ज़माना हो गया,
मैं, मैं तो रहा, अभिनव पुराना हो गया ।
अजब है ज़िन्दगी के मंज़र भी,
बिगड़ते वहीँ है जहाँ चाहते नहीं ।
कड़वाहट घर करने लगी है अंदर ही अंदर,
शायद, एक शख्स को नोच खाने लगी ।
फ़र्क नहीं पड़ता किसी के होने न होने से,
वो कल भी ज़र्द था, आज भी ज़र्द है अभिनव ।
कहीं इतना पत्थर-दिल न बन जाऊं मैं,
कि, तेरे जाने पर किसी को वो जगह न दे सकूँ जो उसकी हो ।
गम-ज़र्द है लोग यहाँ,
इस शहर में बस वीरान नज़र आता है,
कोई अभिनव नज़र आता है,
तो कोई शमशान नज़र आता है ।
ये कौन सी सजा है अभिनव,
कि, हर गुनाहों की वजह मैं ही हूँ ।
गुज़रे है ज़माने कई, राह में चलते-चलते,
बस याद न गुज़री, पुराने कल की ख़ातिर ।
फ़ासले से बढ़ गए है रिश्तों के दरमियाँ,
एक इश्क़ की ऐसी भी साज़िश देखी मैंने ।
कैसी ये प्रीत बनायी, मिल के भी न मिल पायी,
ज्यों-ज्यों मैंने रीत मिलायी, मुँह के बल की खायी ।
सोचता कुछ हूँ और करता कुछ ।
अजीब सी है ज़िन्दगी मेरी,
कि, गुनाह बहुत है या गम मेरे ।
बड़े शौक-ए-हसरत में गुज़ार दी ज़िन्दगी,
बस एक छोटे से सफ़र की ख़ातिर ।
आतिश-ए-सुकून को तरसती रही उम्र-भर रूह मेरी,
इक उर्स बाद दफ़न हो, अब आराम पाया है ।
ख़ताओं और माफ़ियों में क्या ज़माना हो गया,
मैं, मैं तो रहा, अभिनव पुराना हो गया ।
अजब है ज़िन्दगी के मंज़र भी,
बिगड़ते वहीँ है जहाँ चाहते नहीं ।
कड़वाहट घर करने लगी है अंदर ही अंदर,
शायद, एक शख्स को नोच खाने लगी ।
फ़र्क नहीं पड़ता किसी के होने न होने से,
वो कल भी ज़र्द था, आज भी ज़र्द है अभिनव ।
कहीं इतना पत्थर-दिल न बन जाऊं मैं,
कि, तेरे जाने पर किसी को वो जगह न दे सकूँ जो उसकी हो ।
गम-ज़र्द है लोग यहाँ,
इस शहर में बस वीरान नज़र आता है,
कोई अभिनव नज़र आता है,
तो कोई शमशान नज़र आता है ।
ये कौन सी सजा है अभिनव,
कि, हर गुनाहों की वजह मैं ही हूँ ।
गुज़रे है ज़माने कई, राह में चलते-चलते,
बस याद न गुज़री, पुराने कल की ख़ातिर ।
फ़ासले से बढ़ गए है रिश्तों के दरमियाँ,
एक इश्क़ की ऐसी भी साज़िश देखी मैंने ।
कैसी ये प्रीत बनायी, मिल के भी न मिल पायी,
ज्यों-ज्यों मैंने रीत मिलायी, मुँह के बल की खायी ।
No comments:
Post a Comment