Thursday, January 2, 2014

आतिश-ए-सुकून...

अजब सी नासमझी है वक़्त की,
सोचता कुछ हूँ और करता कुछ ।

अजीब सी है ज़िन्दगी मेरी,
कि, गुनाह बहुत है या गम मेरे ।

बड़े शौक-ए-हसरत में गुज़ार दी ज़िन्दगी,
बस एक छोटे से सफ़र की ख़ातिर ।

आतिश-ए-सुकून को तरसती रही उम्र-भर रूह मेरी,
इक उर्स बाद दफ़न हो, अब आराम पाया है ।

ख़ताओं और माफ़ियों में क्या ज़माना हो गया,
मैं, मैं तो रहा, अभिनव पुराना हो गया ।

अजब है ज़िन्दगी के मंज़र भी,
बिगड़ते वहीँ है जहाँ चाहते नहीं ।

कड़वाहट घर करने लगी है अंदर ही अंदर,
शायद, एक शख्स को नोच खाने लगी ।

फ़र्क नहीं पड़ता किसी के होने न होने से,
वो कल भी ज़र्द था, आज भी ज़र्द है अभिनव ।

कहीं इतना पत्थर-दिल न बन जाऊं मैं,
कि, तेरे जाने पर किसी को वो जगह न दे सकूँ जो उसकी हो ।

गम-ज़र्द है लोग यहाँ,
इस शहर में बस वीरान नज़र आता है,
कोई अभिनव नज़र आता है,
तो कोई शमशान नज़र आता है ।

ये कौन सी सजा है अभिनव,
कि, हर गुनाहों की वजह मैं ही हूँ ।

गुज़रे है ज़माने कई, राह में चलते-चलते,
बस याद न गुज़री, पुराने कल की ख़ातिर ।

फ़ासले से बढ़ गए है रिश्तों के दरमियाँ,
एक इश्क़ की ऐसी भी साज़िश देखी मैंने ।

कैसी ये प्रीत बनायी, मिल के भी न मिल पायी,
ज्यों-ज्यों मैंने रीत मिलायी, मुँह के बल की खायी ।

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