Thursday, May 9, 2013

हालात-ए-दिल...

कुछ दिन जी लिए थे बेपरवाह यूँ ही,
आज जागा हूँ तो सोचता हूँ जीना सीखू ।

बहुत जिए दूजों की ख़ातिर,
अब खुदगर्ज़ी को जी चाहता है,
कोई चाहे कह ले कमज़र्फ,
ज़ेब हो जीने को जी चाहता है ।

तिश्नगी की ख्वाहिश लिए परवाने कहाँ चलते है,
ये तो वो कमज़र्फ है जो अफ़साने बने फिरते है,
मगरूर हो शमा के संग पिघलते है,
तिश्नगी की ख्वाहिश लिए परवाने कहाँ चलते है ।

मुद्दतें लाख़ छुपाये फिरते है हालात-ए-दिल,
होती कैसे है उनको ख़बर, यह मालूम नहीं ।

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