Tuesday, August 28, 2012

दुनिया का दस्तूर...

बिखरना, सवरना, सवरकर बिखरना,
यह तो दुनिया का दस्तूर है,
क्यूँ फ़िज़ूल परेशान है,
बिखर कर सवर जाना है दस्तूर है,
ठोकरें लाख लगी तो क्या, राह-पथ लथपथ रहने दे,
मंजिलें मीलों बाकी है, थोड़ा रक्त तो बहने दे,
तू भी बिखर कर सवर जाएगा, सोचना फ़िज़ूल है,
बस कर्म किये जा, क्यूंकि यह तो दुनिया का दस्तूर है |

खुद का अर्थ...

समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ,
व्यथा यह नहीं थी की ज़माना मुझ सा नहीं था,
विरह यह थी की तराना मुझसा नहीं था,
कौन समझे मेरे बिगड़े तरानों को,
हर सोच का फ़साना यही था,
पर फिर भी, समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ |

लोगों को कभी मतलब न था मुझसे,
फिर भी मेरी बेजान ज़िन्दगी उन्हें प्यारी लगी,
थोड़ी-थोड़ी कडवाहट घोल दी,
और दर्द भरी मुस्कान उन्हें प्यारी लगी,
मैं, फिर भी चलता रहा, लड़ता रहा खुद से कह-कह कर,
मैं ज़माने से न हूँ, ज़माना मुझसा हुआ ये कह-कह कर,
पर फिर भी, समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ ||

Tuesday, August 21, 2012

गर न होते ग़ालिब...

गर न होते ग़ालिब, तो लफ़्ज़ों की बरसात न होती,
लफ्ज़, लफ्ज़ ही रहते, शायरी की सौगात न होती,
हर आशिक का फ़साना न बयान होता हाल-इ-दिल मुझ सा,
मुझे न मुफ़लिस शायर कहते और न इनायतों की सौगात होती,
गर न होते ग़ालिब तो नज़्मों की बरसात न होती |

Tuesday, August 14, 2012

बूढ़ा पड़ गया था मैं...

वक़्त के थपेड़ों में ढल गया था मैं,
दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में गल गया था मैं,
छोड़ आया था बचपन की मासूमियत कहीं,
ज़िन्दगी से लड़ते लड़ते बूढ़ा पड़ गया था मैं |

मासूमियत कब शैतानियत में बदल गयी,
हैवानियत कब हैरानियों में मचल गयी,
अन्दर, मैं ही था ज़िंदा कहीं.
फिर क्यूँ शक्शियत बुढ़ापे में बदल गयी,
वक़्त, आज क्यूँ कल जैसा न था,
"मैं" मैं था पर वैसा न था,
शायद, वक़्त के थपेड़ों में ढल गया था मैं,
दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में गल गया था मैं,
वहां, छोड़ आया था बचपन की मासूमियत कहीं,
ज़िन्दगी से लड़ते-लड़ते बूढ़ा पड़ गया था मैं ||

Thursday, August 9, 2012

देख कन्हैया आया हूँ...








देख कन्हैया आया हूँ,
चावल पोटली लाया हूँ,
थोड़ी मन में हीन-भावना,
इसलिए इससे छुपाया हूँ,
देख कन्हैया आया हूँ |

संग-सखा पहले थे,
अब राजन कहलाये हो,
हे! राजन कहने को,
लफ्ज़ जुबां पर लाया हूँ,
देख कन्हैया आया हूँ ||

मैं प्यासा हूँ सदियों से,
भूख लगी है सदियों से,
व्यथा सुनाने आया हूँ,
थोड़ी मन में हीन-भावना,
इसलिए इससे छुपाया हूँ,
चावल पोटली लाया हूँ,
देख कन्हैया आया हूँ |||

Wednesday, August 8, 2012

शाम की ढलती यादें...












शाम की ढलती यादें,
चाय और वो बातें,
मुझे कल की याद दिलाती है,
गुज़रे, पल की याद दिलाती है,
चाय की खुशबू जो महकी,
एक आस जो आँखों में चेह्की,
होंठों की खिलती वो हंसी,
उस कल की याद दिलाती है,
शाम की ढलती यादें,
गुज़रे पल की याद दिलाती है |

शाम का ढलता वो सूरज,
स्याह समुन्दर में लेता हिचकोले,
वो चाय से जलते होंठों को,
देख कर जाने क्यूँ दिल डोले,
चाय में सिमटी वो खुशबू,
मुझे तेरी याद दिलाती है,
उस गुज़रे बीते लम्हे की,
मुझे हर पल याद दिलाती है,
शाम की ढलती यादें,
चाय और वो बातें,
मुझे कल की याद दिलाती है,
गुज़रे, पल की याद दिलाती है ||

जाने किस गम की सजा...

चुप बैठे है, जिए जा रहे है,
जाने क्यूँ गम के घूट, पिए जा रहे है,
तन्हाई काटने लगी है अब तो,
फिर भी अकेले चले जा रहे है,
चुप बैठे है, जिए जा रहे है,
जाने किस गम की सजा दिए जा रहे है |

बेचैनी बढ़ने लगी है,
गढ़ने लगी है एक दाएरा,
जो खालीपन को नासूर सा करने लगा है,
दिल भी रह रह कर, जलने लगा है, गलने लगा है,
पर, फिर भी चुप बैठे है, जिए जा रहे है,
जाने किस गम की सजा दिए जा रहे है ||

दर्द की दरकार को अनसुना सा कर,
जो तुम्हारे भी दिल में करती है उथल-पुथल,
दिल की ज़मीनों पर सरहदें खींचे जा रहे है,
जाने किस गम की सजा दिए जा रहे है,
चुप बैठे है, जिए जा रहे है,
जाने क्यूँ गम के घूट, पिए जा रहे है |||

Monday, August 6, 2012

उलझी सी चाहत...

कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे, फिर क्यूँ लफ़्ज़ों की तलाश है,
क्यूँ उलझी सी चाहत है, क्यूँ उलझे जज़्बात है,
दिल की हर हसरत की खबर है तुमको,
यह भी जानता हूँ, मेरे दिल की समझ है तुमको,
फिर क्यूँ कुछ कहना चाहता हूँ तुमसे, क्यूँ लफ़्ज़ों की तलाश है,
क्यूँ उलझी सी चाहत है, क्यूँ उलझे जज़्बात है ।