समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ,
व्यथा यह नहीं थी की ज़माना मुझ सा नहीं था,
विरह यह थी की तराना मुझसा नहीं था,
कौन समझे मेरे बिगड़े तरानों को,
हर सोच का फ़साना यही था,
पर फिर भी, समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ |
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ,
व्यथा यह नहीं थी की ज़माना मुझ सा नहीं था,
विरह यह थी की तराना मुझसा नहीं था,
कौन समझे मेरे बिगड़े तरानों को,
हर सोच का फ़साना यही था,
पर फिर भी, समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ |
लोगों को कभी मतलब न था मुझसे,
फिर भी मेरी बेजान ज़िन्दगी उन्हें प्यारी लगी,
थोड़ी-थोड़ी कडवाहट घोल दी,
और दर्द भरी मुस्कान उन्हें प्यारी लगी,
मैं, फिर भी चलता रहा, लड़ता रहा खुद से कह-कह कर,
मैं ज़माने से न हूँ, ज़माना मुझसा हुआ ये कह-कह कर,
पर फिर भी, समाज की निंदा कर मैंने बाट लिया दुःख-दर्द,
पर इस छल और छलावे में भूल गया खुद का अर्थ ||
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