Thursday, October 24, 2013

फ़लसफ़ा...

मोहोब्बत का फ़लसफ़ा अक्सर लोग मुझसे पुछा करते है,
और मैं कहता हूँ, वो इश्क ही क्या जिसमे शिकवे या गिला न हो,
पूछते है, तो क्यूँ हो बिखरे-बिखरे से,
और मैं कहता हूँ, वो इश्क ही क्या जिसमे कोई ख़फा न हो ।

गुज़र ही जायेंगे मुफ़लिसी के दिन भी,
कहीं किसी रोज़ "अभिनव" (नया) मिलेगा ।

आज मैंने दिल को थोड़ा साफ़ किया,
कुछ को भूल गया, कुछ को माफ़ किया ।

Tuesday, October 15, 2013

दो राहे...

अजीब सी दो राहे पर खड़ी है ज़िन्दगी मेरी,
सोचता हूँ, किस करवट लूं कि "मैं" मिलु ।

अजब ढंग है ज़िन्दगी का मेरी,
मिलता वही है जो मैं चाहता नहीं ।
दर्द की शिकायत की मैंने,
पाया वही है जो मैं चाहता नहीं ।

कौन समझाए इस दिल को,
कि, आरज़ू भी करता उसकी है जो दिखता नहीं ।

टुकड़े लिए फिरता है अभिनव भरे बाज़ार में,
पर एक बोली नहीं लगती किसी परवरदिगार की ।

दर्द-ए-तन्हाई का मंज़र भी यूँ गुज़रा,
कुछ कह भी न सके और शुबा भी हुआ ।

बड़ा ज़ालिम था वक़्त का वो पहर,
कितनो के दिल पर गुजरी, क्या कहु ।

खोया तनहा तो मैं तब भी था जब तू था यहाँ,
आज, बस भीड़ में मुझको मैं नहीं मिलता ।

कैसे थामू बिखरते मंज़र,
हाँथों का फ़लसफ़ा, जो मेरी किस्मत ने लिखा ।

उम्मीदों की उंगलिया थामे चल दिया था मैं,
आरज़ू-ए-राह कब मुड़ी, ख़बर नहीं ।

बहुत चुका चूका कीमत-ए-मोहोब्बत,
मैंने, आतिश-ए-इश्क़ कुछ यूँ देखा ।

दुआये और भी मांगी है तेरे लिए,
कौन सी कबूल हो, ख़बर नहीं ।

दुआओं का सिलसिला भी कब तक चलाऊं मैं,
कुछ दुआये अभिनव मंज़ूर नहीं होती ।

बहुत सजदे किये तेरी रहनुमाई में,
ए ज़िन्दगी! तू भी क्या खूब मिली ।

Friday, October 11, 2013

क्या...

क्या अजब नासूर है ये,
ठीक भी हूँ और ज़ख्म भी ताज़े है ।

मैं, समझने की चीज़ कहाँ हूँ अभिनव,
खुद ही परेशान हूँ हालात-ए-इश्क़ पे ।

क्या अजब खुमारी है तेरी,
दीदार भी मुश्किल, इंतज़ार भी मुश्किल ।

कहते है अजीब हूँ मैं,
और, मैं खुद आईना देख रहा हूँ ।

क्या अजब नासूर है ये,
ठीक भी हूँ और ज़ख्म भी ताज़े है ।

गरमाई रंजिशें, प्यासी शमशीरें देखता हूँ,
इस शहर के हालात कुछ अच्छे नहीं लगते ।

एक सादगी सी छा गयी तेरे आने के बाद,
कुछ तेरे इश्क़ का रंग ऐसा चढ़ा ।


बड़ी अजीब सी बंदिश है ये,
मिलना भी है और मिल सकते नहीं ।

मसरूफ़ियत में मेहरूमियत नज़र आई उनकी आँखों में,
आज वक़्त फिर मायूस हो उनकी दर से लौटा ।


सब, अपनी नाम-ओ-मोहोब्बत है वक़्त की,
आज-कल सब ही तनहा है मुझ जैसे ।


एक रूठी याद लिए हम भी चलते है तनहाइयों में,
काश! वो हमसफ़र फिर नज़र कर जाए । 


वक़्त-ए-तजुर्बे की ख़्याल-ए-शिकन पड़ गयी है झुर्रियों पर,
चेहरा मेरा मुझसे ही कुछ ख़फ़ा-ख़फ़ा सा है ।

Thursday, October 10, 2013

लिखना छोड़ दिया...

मैंने आज से लिखना छोड़ दिया,
खुद से नाता तोड़ लिया,
चुभने लगे थे लफ्ज़ मुझे,
कभी, उनसे था नाता जोड़ लिया,
मैंने, आज से लिखना छोड़ दिया ।

जो चुभा करे मेरे अपनों को,
मेरे अपनों को मेरे सपनो को,
वो लफ्ज़ ही क्या जो भाए नहीं,
तीर तरह चुभ जाए कहीं,
मैंने लफ़्ज़ों को ही छोड़ दिया,
खुद से नाता तोड़ लिया,
मैं, आज से लिखना छोड़ दिया ॥

Wednesday, October 9, 2013

एक ख़्याल...

चलो, आज एक ख़्याल कहता हूँ,
उलझा एक सवाल कहता हूँ,
भूल गया हूँ एक लफ्ज़ कहीं,
उसका एक मलाल कहता हूँ,
चलो, आज एक ख़्याल कहता हूँ ।

रात का सवाल था कि नींद क्यूँ गुम रही,
सुबह का मलाल था कि रात क्यूँ गुम-सुम गयी,
सूरज का सवाल था कि चांदनी क्यूँ कम रही,
चाँद का ख़्याल था कि रात कुछ यूँ थम गयी,
चलो, उसका यह ख़्याल कहता हूँ,
एक उलझा सा सवाल कहता हूँ,
भूल गया हूँ एक लफ्ज़ कहीं,
उसका एक मलाल कहता हूँ
चलो, आज एक ख़्याल कहता हूँ ॥

Wednesday, October 2, 2013

कैसे...

कैसे झूठे चेहरे बना लेता हूँ,
लोगों को हँस कर दिखा देता हूँ,
कोई पूछ बैठता है मुझसे,
तो मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा देता हूँ,
बड़ी अजीब सी है कशमकश ज़िन्दगी,
उलझा मैं, उलझी मेरी बंदगी,
आँखें नम कोई देखे तो आँख में कचरा बता देता हूँ,
कैसे झूठे चेहरे बना लेता हूँ ।

व्यंग सा लगने लगा है जीना,
यूँ तन्हाई को पीना,
मौजूद है भीड़ बहुत सारी,
फिर भी क्यूँ तनहा सा जीना,
कोई पूछ बैठता है मुझसे,
तो मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखा देता हूँ,
आँखें नम कोई देखे तो आँख में कचरा बता देता हूँ,
कैसे झूठे चेहरे बना लेता हूँ ॥