Friday, October 11, 2013

क्या...

क्या अजब नासूर है ये,
ठीक भी हूँ और ज़ख्म भी ताज़े है ।

मैं, समझने की चीज़ कहाँ हूँ अभिनव,
खुद ही परेशान हूँ हालात-ए-इश्क़ पे ।

क्या अजब खुमारी है तेरी,
दीदार भी मुश्किल, इंतज़ार भी मुश्किल ।

कहते है अजीब हूँ मैं,
और, मैं खुद आईना देख रहा हूँ ।

क्या अजब नासूर है ये,
ठीक भी हूँ और ज़ख्म भी ताज़े है ।

गरमाई रंजिशें, प्यासी शमशीरें देखता हूँ,
इस शहर के हालात कुछ अच्छे नहीं लगते ।

एक सादगी सी छा गयी तेरे आने के बाद,
कुछ तेरे इश्क़ का रंग ऐसा चढ़ा ।


बड़ी अजीब सी बंदिश है ये,
मिलना भी है और मिल सकते नहीं ।

मसरूफ़ियत में मेहरूमियत नज़र आई उनकी आँखों में,
आज वक़्त फिर मायूस हो उनकी दर से लौटा ।


सब, अपनी नाम-ओ-मोहोब्बत है वक़्त की,
आज-कल सब ही तनहा है मुझ जैसे ।


एक रूठी याद लिए हम भी चलते है तनहाइयों में,
काश! वो हमसफ़र फिर नज़र कर जाए । 


वक़्त-ए-तजुर्बे की ख़्याल-ए-शिकन पड़ गयी है झुर्रियों पर,
चेहरा मेरा मुझसे ही कुछ ख़फ़ा-ख़फ़ा सा है ।

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