Tuesday, October 15, 2013

दो राहे...

अजीब सी दो राहे पर खड़ी है ज़िन्दगी मेरी,
सोचता हूँ, किस करवट लूं कि "मैं" मिलु ।

अजब ढंग है ज़िन्दगी का मेरी,
मिलता वही है जो मैं चाहता नहीं ।
दर्द की शिकायत की मैंने,
पाया वही है जो मैं चाहता नहीं ।

कौन समझाए इस दिल को,
कि, आरज़ू भी करता उसकी है जो दिखता नहीं ।

टुकड़े लिए फिरता है अभिनव भरे बाज़ार में,
पर एक बोली नहीं लगती किसी परवरदिगार की ।

दर्द-ए-तन्हाई का मंज़र भी यूँ गुज़रा,
कुछ कह भी न सके और शुबा भी हुआ ।

बड़ा ज़ालिम था वक़्त का वो पहर,
कितनो के दिल पर गुजरी, क्या कहु ।

खोया तनहा तो मैं तब भी था जब तू था यहाँ,
आज, बस भीड़ में मुझको मैं नहीं मिलता ।

कैसे थामू बिखरते मंज़र,
हाँथों का फ़लसफ़ा, जो मेरी किस्मत ने लिखा ।

उम्मीदों की उंगलिया थामे चल दिया था मैं,
आरज़ू-ए-राह कब मुड़ी, ख़बर नहीं ।

बहुत चुका चूका कीमत-ए-मोहोब्बत,
मैंने, आतिश-ए-इश्क़ कुछ यूँ देखा ।

दुआये और भी मांगी है तेरे लिए,
कौन सी कबूल हो, ख़बर नहीं ।

दुआओं का सिलसिला भी कब तक चलाऊं मैं,
कुछ दुआये अभिनव मंज़ूर नहीं होती ।

बहुत सजदे किये तेरी रहनुमाई में,
ए ज़िन्दगी! तू भी क्या खूब मिली ।

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