Sunday, September 4, 2011

कुछ अनकही, कुछ अनसुनी...

क्यूँ घुटन सी...
क्यूँ घुटन सी होने लगती है, अरमानों का क़त्ल होते ही,
खूँ के छीटे बिखर जाते है, चेहरे पर आंसुओं की तरह,
क्यूँ बेबस सी लगने लगती है ज़िन्दगी, किसी के जाने से ही,
यादों के छीटे बिखर जाते है, आँखों में ख़्वाबों की तरह,
क्यूँ गम ही गम नज़र आने लगता है, टूटे वादों की तरह,
बीती यादों के चेहरे बिखर जाते है, अधूरी रातों की तरह,
क्यूँ घुटन सी होने लगती है, अरमानों का क़त्ल होते ही,
खूँ के छीटे बिखर जाते है, चेहरे पर आंसुओं की तरह…

सोचा था…
सोचा था, कुछ मीठी बात होगी, आँखों-आँखों में रात होगी,
पर तू न गुज़रा, तेरी रूह न गुजरी, मेरे अरमानों का जनाज़ा गुज़र गया,
दिल के होसलों का क़त्ल कर, मेरे लफ़्ज़ों को यतीम कर गया,
पर तू न गुज़रा, तेरी रूह न गुजरी, मेरे लफ़्ज़ों का जनाज़ा गुज़र गया…

दर्द होता है…
न सोचो इतना ज्यादा कि दर्द होता है,
न कुरेदो दिल के नासूरों को कि दर्द होता है,
घाव भर भी जाते, अगर इतना न चाहते हम किसी को,
वो मरहम की तरह न नज़र आते है कि दर्द होता है,
न कुरेदो दिल के नासूरों को कि दर्द होता है,
न सोचो इतना ज्यादा कि दर्द होता है…

No comments:

Post a Comment