Thursday, September 1, 2011

क्यूँ मर्ज़ सा लगने लगा है...

हर गुज़रता लम्हा, काटने लगा है अंदर से,
हर बहता कतरा, कचोटने लगा है अंदर से,
दर्द बढ़ता जा रहा है, बदलते नासूर की तरह,
क्यूँ मर्ज़ सा लगने लगा है अंदर से…
घड़ी का काँटा, पल-पल इतना भारी होगा, मैंने सोचा न था,
वक़्त का एक-एक पहर, ऐसे गुज़रेगा, मैंने सोचा न था,
क्यूँ दर्द बढ़ता जा रहा है, बदलते दिल में नासूर की तरह,
क्यूँ मर्ज़ सा लगने लगा है अंदर से…

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