Wednesday, October 31, 2012

कह कर "अपना"...

आँखों में छुपा कर बात नई, कहती हो मुझसे पहचानों,
दिल पर रख लो हाँथ मेरा, कह कर "अपना" अपनालो,
मैं, हूँ भटका बिखरा सा, आ कर मुझे संभालो,
प्यार का भूखा-प्यासा हूँ, दामन में मुझको छुपालो,
मैं हूँ अकेला तनहा सा, कभी पूरा सा कभी आधा सा,
बाहँ पकड़ कर तुम मेरी, बाहों में अपनी छुपालो,
दिल पर रख लो हाँथ मेरा, कह कर "अपना" अपनालो,
मैं, हूँ भटका बिखरा सा, आ कर मुझे तुम सम्भालों,
प्यार का भूखा-प्यासा हूँ, दामन में मुझको छुपालो |

लफ़्ज़ों ने पहचान करायी...

कैसी प्रीत यह जान परायी,
लफ़्ज़ों ने पहचान करायी,
बहुत लिखे वो लफ्ज़ सुनहरे,
कभी चेहरे, आँखें, लफ़्ज़ों के घेरे,
बहुतों की पहचान बताई,
खुद की तस्वीर कभी नज़र न आई,
कई बोले, भई! वाह क्या बात कही,
चेहरे पर पूरी कविता कह दी,
आँखों की कैसी सच्चाई, जो खुद हम को नज़र न आई,
पर तुमने कुछ लफ्ज़ तराशे, आँखों में चमक सी आई,
बहुतों की पहचान बताई,
खुद की तस्वीर कभी नज़र न आई,
कैसी प्रीत यह जान परायी,
लफ़्ज़ों ने पहचान करायी | 

कोई बोले मेरे लिए लिख दो,
कोई बोले मेरे लिए कह दो,
जो भी दिखाई दे सच्चाई,
वो लफ़्ज़ों में नज़र आई...

पर, कोई तो मेरे लिए कह दे,
जो अब तक मुझको नज़र न आई,
कैसी प्रीत यह जान परायी,
लफ़्ज़ों ने पहचान करायी,
बहुतों की पहचान बताई,
पर, खुद की तस्वीर कभी नज़र न आई ||

Tuesday, October 30, 2012

खुद को खोजन मैं चला...

खुद को खोजन मैं चला, खुद को कहीं न पाया,
जो खोजा खुदा को मैंने, अक्स नज़र मेरा आया,
प्रीत परायी कैसी यह, अब तक समझ न पाया,
जो खुद खुदा मुझ में है, तो क्या खोजन क्या पाया,
प्राण भरी जिवाह सुमरी, कटु वचन जब आया,
दूर खुदाई देख कर मन मेरा घबराया,
खुद को खोजन मैं चला, खुद को कहीं न पाया,
जो खोजा खुदा को मैंने, अक्स नज़र मेरा आया |

कोटि-कोटि हुआ धन्य मैं, ज्ञान समझ जब आया,
संग कवि जब बोल पड़ा, सब में खुदा समाया,
ज्ञात हुआ अमृत सा, मन-तृप्ति सा पाया,
प्रीत परायी कैसी यह, अब तक समझ न पाया,
फल, फूल, मोती सा, मोहित सबको पाया,
कण, कंकड़-पत्थर में, सब में नज़र वही आया,
खुद को खोजन मैं चला, खुद को कहीं न पाया,
जो खोजा खुदा को मैंने, अक्स नज़र मेरा आया ||

बाकी है...



















कोफ़्त होने लगी है खुद से,
नासूर सी गंध भी आती है,
जिस्म सड़ गया है मेरा,
या रूह सड़नी बाकी है?
कोहराम मचा है अन्दर,
कोतुहल भी जागी है,
गलने लगी है रूह,
और लपटे नज़र आती है,
कोफ़्त होने लगी है खुद से,
नासूर सी गंध आती है,
जिस्म सड़ गया है मेरा,
या रूह सड़नी बाकी है?

Tuesday, October 16, 2012

मयस्सर...

बड़े तल्लीन हो तश्तीफ कर यह जाना,
कि हर गुनाह की वजह हम है,
कहीं दिल टूटने की सजा हम है,
तो कहीं दिल तोड़ने की वजह हम है ।

ये सांस, ये रूह जो बाकी है,
शायद खुदा तेरी जुदाई ही झांकी है,
मैं जिंदा हूँ दफ़न सा,
लिपटा हूँ कफ़न सा,
बस बे-जान जिस्म में कुछ सांसें बाकी है,
शायद खुदा तेरी जुदाई ही झांकी है,
ये सांस, ये जो रूह बाकी है |

Sunday, October 7, 2012

कुछ उलझी सुलझी सी...

रिश्ता...
अजब सा रिश्ता है, बांधे एक डोर है,
कभी मैं खींचू, तो कभी खींचता तेरी ओर है,
बाँध कर भी बंधा नहीं, जाने जैसी डोर है,
खुल कर भी मैं खुला नहीं, खींचे तेरी ओर है,
अजब सा रिश्ता है, बांधे एक डोर है |

उलझे हालात...
कहना क्या चाहते हो, जज़्बात क्या है,
यूँ उलझे हुए से हालात क्या है,
जो दिल की उलझन हो, कह, सुलझन कर लो,
मन में उथल-पुथल का मंथन कर लो,
कुछ न कह कर, सब कुछ कहने की बात क्या है,
यूँ उलझे हुए से हालात क्या है,
कहना क्या चाहते हो, जज़्बात क्या है |

वफ़ा...
वफ़ा, कब बे-वफ़ा हो गयी ख़्याल नहीं,
उलझे ऐसे हालात सवाल नहीं,
दिल को जिंदा रखे है बस उनके लिए,
पर वो कब बे-वफ़ा हो गए ख़्याल नहीं |

यकीन...
हमको अपनों पर यकीन था, गैरों पर कहाँ इल्म था,
ख़ंजर उसने मारा, जिसका ज्यादा करम था,
रूह, यह देख रोती रही, कि अपना क्यूँ गैर हो गया,
क़त्ल-इ-अरमां उसने किया, जिसका अपना सा भरम था |

राज़-इ-दिल...
कुछ बोलते नहीं, राज़-इ-दिल खोलते नहीं,
आँखों में देख कर, लफ़्ज़ों को तोलते नहीं,
जो है दरमियाँ, कुछ बढ़ी सी दूरियां,
उन दूरियों की हो गयी इन्तेहाँ,
पर, फिर भी कुछ बोलते नहीं, राज़-इ-दिल खोलते नहीं,
अब तो बोल दो, राज़-इ-दिल खोल दो |

Wednesday, October 3, 2012

शख्स कहीं मुझसा है बेगाना...

खुद में झाँका तो यह जाना,
एक शख्स कहीं मुझसा है बेगाना,
खुद में उलझा-उलझा सा,
बातों में सुलझा-सुलझा सा,
दुनिया से बेगाना,
खुद में झाँका तो यह जाना,
एक शख्स कहीं मुझसा है बेगाना ।

है अजीब, अड़ियल काया,
धूमिल पड़ती उसकी छाया,
अंग, नंग, म्रदंग, रहता सबसे तंग,
खुद ही खुद में रह कर, लड़ता खुद से जंग,
खुद में उलझा-उलझा सा,
बातों में सुलझा-सुलझा सा,
दुनिया से बेगाना,
खुद में झाँका तो यह जाना,
एक शख्स कहीं मुझसा है बेगाना ।।

कौन हूँ मैं?















कौन हूँ मैं?
खुद का वजूद जानता ही नहीं,
जिंदा हूँ पर क्यूँ? कोई वजह मानता ही नहीं,
खुद के वजूद की तलाश में, जाने कितने आईने तोड़ दिया,
खुद को पाने की चाहत में, जाने कितने रिश्ते-नाते जोड़ लिए,
पर " मैं " न मिला, मेरी रूह न मिली,
कुछ लफ्ज़ मिले, गीली स्याही भी मिली,
कौन हूँ मैं?
यह जानता ही नहीं,
खुद के होने का वजूद जानता ही नहीं ।

एक तार सी ज़िन्दगी,
बे-दिल, बेज़ार सी ज़िन्दगी,
भीड़ में, आम में,
तनहा अकेला शाम में,
खुद का वजूद जानता ही नहीं,
जिंदा हूँ पर क्यूँ? कोई वजह मानता ही नहीं,
कौन हूँ मैं?
यह जानता ही नहीं ।।