Sunday, October 7, 2012

कुछ उलझी सुलझी सी...

रिश्ता...
अजब सा रिश्ता है, बांधे एक डोर है,
कभी मैं खींचू, तो कभी खींचता तेरी ओर है,
बाँध कर भी बंधा नहीं, जाने जैसी डोर है,
खुल कर भी मैं खुला नहीं, खींचे तेरी ओर है,
अजब सा रिश्ता है, बांधे एक डोर है |

उलझे हालात...
कहना क्या चाहते हो, जज़्बात क्या है,
यूँ उलझे हुए से हालात क्या है,
जो दिल की उलझन हो, कह, सुलझन कर लो,
मन में उथल-पुथल का मंथन कर लो,
कुछ न कह कर, सब कुछ कहने की बात क्या है,
यूँ उलझे हुए से हालात क्या है,
कहना क्या चाहते हो, जज़्बात क्या है |

वफ़ा...
वफ़ा, कब बे-वफ़ा हो गयी ख़्याल नहीं,
उलझे ऐसे हालात सवाल नहीं,
दिल को जिंदा रखे है बस उनके लिए,
पर वो कब बे-वफ़ा हो गए ख़्याल नहीं |

यकीन...
हमको अपनों पर यकीन था, गैरों पर कहाँ इल्म था,
ख़ंजर उसने मारा, जिसका ज्यादा करम था,
रूह, यह देख रोती रही, कि अपना क्यूँ गैर हो गया,
क़त्ल-इ-अरमां उसने किया, जिसका अपना सा भरम था |

राज़-इ-दिल...
कुछ बोलते नहीं, राज़-इ-दिल खोलते नहीं,
आँखों में देख कर, लफ़्ज़ों को तोलते नहीं,
जो है दरमियाँ, कुछ बढ़ी सी दूरियां,
उन दूरियों की हो गयी इन्तेहाँ,
पर, फिर भी कुछ बोलते नहीं, राज़-इ-दिल खोलते नहीं,
अब तो बोल दो, राज़-इ-दिल खोल दो |

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