Saturday, June 22, 2013

फ़लसफ़ा...

कोफ़्त होने लगी थी खुद से, गंध भी उठती थी,
आज प्यार का आईना टूटा तो रूह को बुखार आ गया ।

नहीं रुकते आंसू मेरे जाने क्यूँ,
बहते रहते है जाने किस वास्ते ।

ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बस इतना सा था अभिनव,
जो चाहा वो पाया नहीं, जो पाया वो चाहा नहीं ।


मंज़िलें उनको भी मिले जो दिन-ओ-चार रहे,
हम जैसे काफ़िरों को बस मय्यत मिला करती है ।

ता-उम्र मांगते रहे ऐ-खुदा,
आज, हाथों को बाँध मैंने आगे बढ़ना सीखा है ।


कहते है, मांग लो चाहे दुनिया नयी,
पर वो न मांगो जिसकी आस लिए जीते हो । 

अश्क़ उनके लिए गिरे जिन्हें आंसुओं की कदर न थी,
और मैं, रोता रहा ता-उम्र बेगैरतों के लिए । 

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