Tuesday, June 25, 2013

हाल...

कोई बंधन नहीं, फिर भी एक डोर है,
कभी मैं खींचू, कभी खीचे तेरी ओर है,
प्यारा सा बंधन, बंधें अपनी ओर है,
कहने को "दोस्ती", जग समेटे अपनी ओर है ।

एक आस जगा तू अपने अन्दर, मंज़िल उससे बनाने की,
भव-नैया तू तर जाएगा, न छोड़ चाह उससे तू पाने की,
राह कठिन है अपितु, चाह जगा तू पाने की,
एक आस जगा तू अपने अन्दर, मंज़िल उससे बनाने की ।

तो, क्या फ़र्क पड़ता है मेरे लफ़्ज़ों के चोरी होने से,
मामला तो तब खड़ा हो जब जिंदा हूँ मैं ।

इतनी सी भी फुरसत नहीं उन्हें कि मेरा हाल ही पूछे,
उनसे अच्छे तो मेरे दुश्मन है, जो पल-पल की ख़बर रखते है ।

अब तो आस भी छोड़ बैठे है गलते-गलते,
मरीज़-ए-हाल-ए-ख़राब अब न पुछा कीजे ।

बहुत संग-दिल हो गए है मेरे अपने,
हाल पूछने पर भी सबब-ए-आलम खोजते है ।

काफ़िरों की जमात में तो कबसे शामिल है अभिनव,
कोई दोस्ती कर शुबा न करे ।

हम जैसे काफ़िरों को इश्क़ की शुबा नहीं,
ये तो वो गिला है जो आशिक़ों को मिलता है ।

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