बद से बदतर होता जा रहा इंसान, अपना अक्स खोता जा रहा इंसान,
जुर्म और खून से सराबोर होती जा रही, एक-एक रग,
जुर्म और काल की, काली कूप में बढते उसके पग,
न माँ, न बाप, न बहन, न भाई अपना,
बस पैसे की भूख, और खून का सपना जीता जा रहा इंसान,
हर रिश्ते को शर्म-सार करता जा रहा इंसान,
बुराई के पथ पर बढता जा रहा इंसान...
देख इस दुर्दशा को, दिल मेरा भी जोर रोया,
पर सुधार की गुंजाईश न देख, दर्द अपना दिल में खोया,
बन के पथिक, भटकता रहा दर-ब-दर,
मातम भी न मना सका, ऐसे ये बे-जोर रोया...
No comments:
Post a Comment