Friday, February 25, 2011

ज़ख्म-इ-दिल देने का शौक न पाला था यारों...

ज़ख्म-इ-दिल देने का शौक न पाला था यारों, दिल्लगी में ज़ख्म लगा बैठे,
उस दरीचे पर यार को देखा, सब कुछ उस पर लुटा बैठे,
ज़ख्म आज भी हरा है, बात कल की तरह,
यादें फिर भी ताज़ा है, रात कल की तरह,
पर वो न आये, उस नयी बरसात की तरह,
छन् से टूटा ख्वाब, उस काली रात की तरह,
ज़ख्म-इ-दिल देने का शौक न पाला था यारों, दिल्लगी में ज़ख्म लगा बैठे,
उस दरीचे पर यार को देखा, सब कुछ उस पर लुटा बैठे...

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