Thursday, December 29, 2011

उनके गम में इस कदर डूबे...

उनके गम में इस कदर डूबे की ज़िन्दगी वीरान लगने लगी,
घर मकान बन गए, कब सुबह, कब शाम ढलने लगी,
दिन तो गुज़र जाता था, भीड़ की तन्हाइयों में,
पर रात न-गुज़र थी मुनासिब, यादों की परछाइयों में,
हमसफ़र जो थे, क्यूँ राह में सफ़र कर गए,
हम तो साथ चलते रहे, क्यूँ राह अनजान कर गए,
लद गए वो सुहाने दिन, धुंधली पड़ गयी सुखभरी रातें,
अब तो तनहा तकिया है, और कुछ गीली यादें,
उनके गम में इस कदर डूबे कि ज़िन्दगी वीरान लगने लगी,
घर मकान बन गए, कब सुबह, कब शाम ढलने लगी...

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