Wednesday, March 20, 2013

पिघले अरमां...

पिघले नीलम से पिघले अरमां,
सुलगते लम्हों में सिमट कर रह गए,
कुछ सांसें तनहा थी,
कुछ हम खुद की आहों में सिमट कर रह गए ।

मुद्दतों तरसे जिस आरज़ू-ए-इश्क़ को,
वो (खुदा) जो मिला तो उम्र ही गुज़र गयी ।

वाकिफ़ खुद भी थे आदत-ए-इश्क़ से अपनी,
आज बेवफ़ाई का उनसे ख़्याल आ गया ।

ता-उम्र जिए साथ, पर दिल में उनके घर कर न सके,
अब तो दूजों के जाने से उनकी सांसें थमा करती है ।

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