Wednesday, March 27, 2013

उम्मीद...

कितनी ख्वाहिशें जी मैंने,
कितनी हसरतें पी मैंने,
पर लिख न सका वो हसरत-ए-दिल नादान ।

बड़ी सरगोशी से थामी कलम-ए-आरज़ू,
शिद्दत से उकेरी संगेमरमर पर,
कहने को मैले कागज़ के टुकड़े थे,
जिन्हें, सजाया भीगी हसरतों से,
पर लिख न सका वो हसरत-ए-दिल नादान ।।

लोगों की उम्मीद जगने लगी,
कुछ महफ़िलें मेरे नाम पर सजने लगी,
दौर-ए-जाम भी उठाये मेरे नाम पर,
शायर का दर्जा दिया बे-नाम पर,
पर लिख न सका हसरत-ए-दिल नादान ।

कितनी ख्वाहिशें जी मैंने,
कितनी हसरतें पी मैंने,
पर लिख न सका वो हसरत-ए-दिल नादान ।।

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