Sunday, April 20, 2014

अच्छा लिखने की ख़ातिर...















कुछ अच्छा लिखने की ख़ातिर,
वो दर्द कहाँ से लाऊं,
घाव बड़े गहरे है दिल पर,
पर, वो मर्ज़ कहाँ से लाऊं,
अपनों में पराये ढूंढें,
अपनों की तर्ज़ कहाँ से लाऊं,
कुछ अच्छा लिखने की ख़ातिर,
वो दर्द कहाँ से लाऊं ।

कलम बड़ा तन्हा सा था,
दर्द का भी लम्हा सा था,
घाव की विरहा गहरी,
पर, वो अर्ज़ कहाँ से लाऊं,
अपनों में पराये ढूंढें,
अपनों की तर्ज़ कहाँ से लाऊं,
कुछ अच्छा लिखने की ख़ातिर,
वो दर्द कहाँ से लाऊं ।।

Friday, April 18, 2014

सूरज की राह...

रात जागता रहा,
सुबह की राह ताकता रहा,
लड़ता रहा साँसों से मैं,
और सूरज की राह ताकता रहा,
रात जागता रहा ।

भोर की पहली किरण,
मन की दीवारों पर पड़ने लगी,
देखते ही देखते,
सांसें शोर करने लगी,
सुर्ख़ थी आँखें,
और मैं दीवारों में अक्स ताकता रहा,
लड़ता रहा साँसों से मैं,
और सूरज की राह ताकता रहा,
रात जागता रहा ।।

दम तोड़ने लगा था जिस्म,
अंत था कैसा और किस किस्म,
मैं, बदलते वक़्त और मौसम में झांकता रहा,
वो आगे चलता रहा और मैं पीछे ताकता रहा,
सुर्ख़ थी आँखें,
और मैं दीवारों में अक्स ताकता रहा,
लड़ता रहा साँसों से मैं,
और सूरज की राह ताकता रहा,
रात जागता रहा ।।।

Tuesday, April 1, 2014

कुछ यूँ ही...

सर्दियों की, गुनगुनी सी धूप लिए चले आते हो,
जब-जब तन्हाई अपनी रंगत बदलती है ।

बड़े अजीब दौर से गुज़री है ज़िन्दगी मेरी,
भागता भी रहा और थम भी न सका ।

ख़्वाबों की कश्ती का किनारा तू है,
मेरे सुकून का सहारा तू है,
हूँ फ़ना तुझ में,
ये इल्तजा है मेरी,
मेरे रूह-ओ-दिल की दीवारों पर,
तेरा (ख़ुदा) ही तेरा इशारा क्यूँ है ।

ख़ाक-ए-सुपुर्द कर देना जलाने से बेहतर मुझे,
ताकि, फिर उठ आऊं एक रोज़ बुलाने पर उसके ।

फिर एक लफ्ज़ ने छलनी सा कर दिया,
गोया, मरहम सा था और क़त्ल भी कर गया ।

उठ जो जाता रुख़ से नकाब,
सुबह में शाम ढल जाती,
दीदार-ए-हुस्न की शब् होती,
दिल की हसरतें तमाम हल जाती ।

होली प्यारी...

उठाओ रंग, भरो पिचकारी,
खा मत जाना गुजिया सारी,
रंगों की ये बरखा न्यारी,
खुशियाँ दे ये होली प्यारी ।

भांग भरो तर दो नर-नारी,
दुःख न हो, ख़ुशी-चिंतन सारी,
उठाओ रंग, भरो पिचकारी,
खुशियाँ दे ये होली प्यारी ।।

चाँद...

















सुबह के बादलों से चाँद झांकता रहा,
मैं, रात भर चलता रहा और वो ताकता रहा,
जलता रहा मिलन की तपिश में रात भर,
और वो मुझे सपनों में ताकता रहा ।
अजब सी ख्वाहिश थी उसकी,
वो भी चलता रहा मैं भी ताकता रहा,
खेल से आँख-मिचोली का, उसकी आँखों में झांकता रहा,
अठखेलियाँ लिए वो मुझको ताकता रहा,
जलता रहा मिलन की तपिश में रात भर,
और वो मुझे सपनों में ताकता रहा ।।

मलाल-ए-दौर...

नींद और लोगों का कुछ इस तरह आना जाना रहा,
किसी को याद रहा, किसी को बुलाना पड़ा ।

बह जाए मलाल तो अच्छा है,
घुटती रहे जो बात वो अच्छी नहीं ।

एक ज़ख्म इधर भी था, एक घाव उधर भी,
तुमने आंसुओं से और मैंने हंस कर दर्द को दरकिनार कर दिया ।

इक यादें ही थी शरीक-ए-हयात मेरी,
वरना तन्हा था भरे बाज़ार में ।

पलट कर देखा नहीं गुज़रा जिस शहर से,
ज़ख्मों से कुछ ऐसा मैंने दरकिनार कर लिया ।

बहुत दूर चल कर ये जाना,
कि, रास्ता लम्बा है ज़िन्दगी नहीं ।

और फिर रूठने की वजह मैं ही हुआ,
खुशियाँ देने का फ़लसफ़ा शायद पुराना हो गया ।

गलतियों का शुबा भी न कर सके,
ये कैसी खुदाई दी तूने ।

यादों का भी क्या ठिकाना था,
उसका भी तेरी तरह आना-जाना था ।

आंसू भी न बह सके ऐसा ज़र्द हुआ वो,
काश! मैं भी पत्थर का होता ।

दर्द-ए-मोहोब्बत का कैसा सबब अभिनव,
कि, मनाते भी मानता नहीं दिलबर ।

एक पल को भी न झपकी मेरी आँखें,
कैसी जुदाई का, मंज़र था अभिनव ।

चुभ ही गए आख़िर लफ्ज़ भी,
काश! लफ़्ज़ों की जगह ख़ंजर होता ।

खो जाना चाहता हूँ नींद की गहराईयों में,
न सोता रहूँ और न जागने की चाहत जगे ।

जो आँख लगे तो अब न खुले,
मुझे इस शहर की रौशनी की आदत नहीं रही ।

रात भर मौत की दुआए मांगता रहा,
इक तेरी तसल्ली की ख़ातिर अभिनव ।

एक ही शिकवा रहा आँखों से,
कि, बरसती रही तमाम उम्र ।

दिल-ए-सितमगर...

जब भी खोल बैठता हूँ यादों की पोटली,
गम के कुछ आंसू छलक से जाते है ।

टिम-टिमाती रही तेरी यादों की लौ अक्सर,
इस ख़ाक होती रूह में ।

नकामों सी हालत रही मेरी,
हसरतों की हर बाज़ी हार कर ।

दिल-ए-सितमगर की आदत कैसी,
कि, चाहत भी तू और राहत भी तू ।

कानों में गूंजती रही घड़ी की ठक-ठक,
और अन्दर, सवालों का घमासान चलता रहा ।

आहिस्ता रुख्सत ली मैंने ज़माने से,
न किसी को ख्य़ाल हुआ, न किसी को मलाल ।

एक अजब सा एहसास है तुझ संग हो कर,
दूर होने की कभी हसरत नहीं उठती ।

फिर वहीँ गलतियाँ दोहराई मैंने,
एक तेरी वफ़ा की ख़ातिर ।

एक कसक सी उठ कर रह गयी सुन कर,
वो एक बात, जो चुभती रही हर वक़्त ।

चुभ ही गयी बात भी,
गोया, दिल कभी पत्थर का होता ।

अश्क़ का रश्क़ कब तक करे अभिनव,
कि, मातम भी अभिनव और गम भी अभिनव ।

वो, जब-जब आया ज़ख्म का निशाँ दे गया,
और मैं कमज़र्फ़ चाह कर भी कुछ दे न सका ।

गीला तकिया और सिसकती यादें लिए बैठा रहा रात भर,
और वो गुज़रती रही आहिस्ता-आहिस्ता ।

बड़ा कमज़र्फ़ था वो,
ज़िन्दगी के बदले आँसू छोड़ गया ।

रंग...

छू ही लेगी आ कर एक रोज़ मौत भी,
चलो उस दिन तक जीने का खेल खेलते है ।

रंग ज़ेब सा हो गया ख्वाहिशों का,
कुछ इस तरह से क़त्ल हुआ मेरी आशिक़ी का ।

चाहतों की कश्ती का किनारा वो निकला,
आह तब निकली, इशारा (मरने का वक़्त) जो निकला ।

शौक-ए-आशिक़ी लिबास यूँ जामा,
कि, न तन ढक सके न मन ।

क्यूँ पूछना कुछ गुनाह सा लगता है,
फ़कत, दो घड़ी बातों की ख़ातिर ।

आरज़ू-ए-वक़्त की ख़लिश कोई हमसे पूछे,
सांसें रोके बैठे है मिलने की आस में ।

क्यूँ तड़पते हो यादों में अभिनव,
कुछ बातें भुला देनी ही अच्छी होती है ।

आज फिर क़त्ल-ए-आम हुआ,
भरी महफ़िल, सर-इ-शाम हुआ,
कुछ इस नज़र से देखा आँखों ने,
मैं शायर अभिनव (नया-नया) बदनाम हुआ ।

दिन भर, पुरजोर रही बेचैनी उसकी,
देखते है रात का हाल क्या होता है ।

हर आरज़ू-ए-तमन्ना की ख़लिश तुझसे रही,
मेरी टूटती साँसों को अब एक मुक्कम्मल जहान दे दे ।

हलफ़नामा क्या पढ़े तकदीर-ए-वफ़ा का,
ये किस्सा तो सदियों पुराना हो गया ।
याद नहीं किस रोज़ ज़फ़ा की वफ़ा ने,
ये तो गुज़रा ज़माना हो गया ।

अजीब सी कशमकश है दिल की,
तन्हा हूँ भरी भीड़ में ।

एक ही शिकवा रहा आँखों से,
बरसती रही तमाम उम्र ।

सज़ा-ए-जुदाई...

दर्द ही मिला है आशिक़ी में अक्सर,
कोई तामीर नहीं देखा हँसते हुए ।

क़ाश! यादें भी गुज़र जाती गुज़रे वक़्त की तरह,
फ़िर, कोई शिक़वा न होता मेरी आँखों को मुझसे ।

बहुत दिल्लगी कर मिला था मैं मुझे,
एक दिन तू आ कर मुझसे मेरा आईना ले गया ।

एक दिन भीग कर आँखें मुझसे बोली,
या तो आस छोड़ दे या मेरी सांस तोड़ दे ।

शिकायतें बहुतों ने की मेरी मुझसे जुदा होने की,
एक मैं ही न ख़फ़ा हुआ किसी और से ।

कितना मुश्किल है तुझ बिन एक-एक लम्हा गुज़ारना,
ये मैं जानता हूँ या ये तन्हाई ।

कुछ यूँ बीता है रुक-रुक कर लम्हा,
मानो अपनी आपबीती यूँ मुझ सी कही हो ।

ज़िक्र ही कहाँ था मेरा दूर-दूर तक,
बस मैं ही मैं तन्हा था भरे शहर में ।

बुत सी हो गयी ज़िन्दगी मेरी,
एक तेरी आस में जीते-जीते ।

घाव इतने गहरे तो नहीं की जी न सके,
पर, हसरत सी नहीं बाकी और सांसें लेने की ।

एक उम्र गुज़ार दी इस सुकून की ख़ातिर,
उम्र के अब इस पड़ाव पर नासूर सा क्यूँ चुभता है ।

सज़ा भी जुदाई की ऐसी मिली अभिनव,
कि, हँसते भी रहे और आंसू भी गिरे ।