Tuesday, April 1, 2014

मलाल-ए-दौर...

नींद और लोगों का कुछ इस तरह आना जाना रहा,
किसी को याद रहा, किसी को बुलाना पड़ा ।

बह जाए मलाल तो अच्छा है,
घुटती रहे जो बात वो अच्छी नहीं ।

एक ज़ख्म इधर भी था, एक घाव उधर भी,
तुमने आंसुओं से और मैंने हंस कर दर्द को दरकिनार कर दिया ।

इक यादें ही थी शरीक-ए-हयात मेरी,
वरना तन्हा था भरे बाज़ार में ।

पलट कर देखा नहीं गुज़रा जिस शहर से,
ज़ख्मों से कुछ ऐसा मैंने दरकिनार कर लिया ।

बहुत दूर चल कर ये जाना,
कि, रास्ता लम्बा है ज़िन्दगी नहीं ।

और फिर रूठने की वजह मैं ही हुआ,
खुशियाँ देने का फ़लसफ़ा शायद पुराना हो गया ।

गलतियों का शुबा भी न कर सके,
ये कैसी खुदाई दी तूने ।

यादों का भी क्या ठिकाना था,
उसका भी तेरी तरह आना-जाना था ।

आंसू भी न बह सके ऐसा ज़र्द हुआ वो,
काश! मैं भी पत्थर का होता ।

दर्द-ए-मोहोब्बत का कैसा सबब अभिनव,
कि, मनाते भी मानता नहीं दिलबर ।

एक पल को भी न झपकी मेरी आँखें,
कैसी जुदाई का, मंज़र था अभिनव ।

चुभ ही गए आख़िर लफ्ज़ भी,
काश! लफ़्ज़ों की जगह ख़ंजर होता ।

खो जाना चाहता हूँ नींद की गहराईयों में,
न सोता रहूँ और न जागने की चाहत जगे ।

जो आँख लगे तो अब न खुले,
मुझे इस शहर की रौशनी की आदत नहीं रही ।

रात भर मौत की दुआए मांगता रहा,
इक तेरी तसल्ली की ख़ातिर अभिनव ।

एक ही शिकवा रहा आँखों से,
कि, बरसती रही तमाम उम्र ।

No comments:

Post a Comment