Tuesday, April 1, 2014

रंग...

छू ही लेगी आ कर एक रोज़ मौत भी,
चलो उस दिन तक जीने का खेल खेलते है ।

रंग ज़ेब सा हो गया ख्वाहिशों का,
कुछ इस तरह से क़त्ल हुआ मेरी आशिक़ी का ।

चाहतों की कश्ती का किनारा वो निकला,
आह तब निकली, इशारा (मरने का वक़्त) जो निकला ।

शौक-ए-आशिक़ी लिबास यूँ जामा,
कि, न तन ढक सके न मन ।

क्यूँ पूछना कुछ गुनाह सा लगता है,
फ़कत, दो घड़ी बातों की ख़ातिर ।

आरज़ू-ए-वक़्त की ख़लिश कोई हमसे पूछे,
सांसें रोके बैठे है मिलने की आस में ।

क्यूँ तड़पते हो यादों में अभिनव,
कुछ बातें भुला देनी ही अच्छी होती है ।

आज फिर क़त्ल-ए-आम हुआ,
भरी महफ़िल, सर-इ-शाम हुआ,
कुछ इस नज़र से देखा आँखों ने,
मैं शायर अभिनव (नया-नया) बदनाम हुआ ।

दिन भर, पुरजोर रही बेचैनी उसकी,
देखते है रात का हाल क्या होता है ।

हर आरज़ू-ए-तमन्ना की ख़लिश तुझसे रही,
मेरी टूटती साँसों को अब एक मुक्कम्मल जहान दे दे ।

हलफ़नामा क्या पढ़े तकदीर-ए-वफ़ा का,
ये किस्सा तो सदियों पुराना हो गया ।
याद नहीं किस रोज़ ज़फ़ा की वफ़ा ने,
ये तो गुज़रा ज़माना हो गया ।

अजीब सी कशमकश है दिल की,
तन्हा हूँ भरी भीड़ में ।

एक ही शिकवा रहा आँखों से,
बरसती रही तमाम उम्र ।

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