Tuesday, April 1, 2014

सज़ा-ए-जुदाई...

दर्द ही मिला है आशिक़ी में अक्सर,
कोई तामीर नहीं देखा हँसते हुए ।

क़ाश! यादें भी गुज़र जाती गुज़रे वक़्त की तरह,
फ़िर, कोई शिक़वा न होता मेरी आँखों को मुझसे ।

बहुत दिल्लगी कर मिला था मैं मुझे,
एक दिन तू आ कर मुझसे मेरा आईना ले गया ।

एक दिन भीग कर आँखें मुझसे बोली,
या तो आस छोड़ दे या मेरी सांस तोड़ दे ।

शिकायतें बहुतों ने की मेरी मुझसे जुदा होने की,
एक मैं ही न ख़फ़ा हुआ किसी और से ।

कितना मुश्किल है तुझ बिन एक-एक लम्हा गुज़ारना,
ये मैं जानता हूँ या ये तन्हाई ।

कुछ यूँ बीता है रुक-रुक कर लम्हा,
मानो अपनी आपबीती यूँ मुझ सी कही हो ।

ज़िक्र ही कहाँ था मेरा दूर-दूर तक,
बस मैं ही मैं तन्हा था भरे शहर में ।

बुत सी हो गयी ज़िन्दगी मेरी,
एक तेरी आस में जीते-जीते ।

घाव इतने गहरे तो नहीं की जी न सके,
पर, हसरत सी नहीं बाकी और सांसें लेने की ।

एक उम्र गुज़ार दी इस सुकून की ख़ातिर,
उम्र के अब इस पड़ाव पर नासूर सा क्यूँ चुभता है ।

सज़ा भी जुदाई की ऐसी मिली अभिनव,
कि, हँसते भी रहे और आंसू भी गिरे ।

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