Tuesday, April 1, 2014

दिल-ए-सितमगर...

जब भी खोल बैठता हूँ यादों की पोटली,
गम के कुछ आंसू छलक से जाते है ।

टिम-टिमाती रही तेरी यादों की लौ अक्सर,
इस ख़ाक होती रूह में ।

नकामों सी हालत रही मेरी,
हसरतों की हर बाज़ी हार कर ।

दिल-ए-सितमगर की आदत कैसी,
कि, चाहत भी तू और राहत भी तू ।

कानों में गूंजती रही घड़ी की ठक-ठक,
और अन्दर, सवालों का घमासान चलता रहा ।

आहिस्ता रुख्सत ली मैंने ज़माने से,
न किसी को ख्य़ाल हुआ, न किसी को मलाल ।

एक अजब सा एहसास है तुझ संग हो कर,
दूर होने की कभी हसरत नहीं उठती ।

फिर वहीँ गलतियाँ दोहराई मैंने,
एक तेरी वफ़ा की ख़ातिर ।

एक कसक सी उठ कर रह गयी सुन कर,
वो एक बात, जो चुभती रही हर वक़्त ।

चुभ ही गयी बात भी,
गोया, दिल कभी पत्थर का होता ।

अश्क़ का रश्क़ कब तक करे अभिनव,
कि, मातम भी अभिनव और गम भी अभिनव ।

वो, जब-जब आया ज़ख्म का निशाँ दे गया,
और मैं कमज़र्फ़ चाह कर भी कुछ दे न सका ।

गीला तकिया और सिसकती यादें लिए बैठा रहा रात भर,
और वो गुज़रती रही आहिस्ता-आहिस्ता ।

बड़ा कमज़र्फ़ था वो,
ज़िन्दगी के बदले आँसू छोड़ गया ।

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