Tuesday, April 1, 2014

कुछ यूँ ही...

सर्दियों की, गुनगुनी सी धूप लिए चले आते हो,
जब-जब तन्हाई अपनी रंगत बदलती है ।

बड़े अजीब दौर से गुज़री है ज़िन्दगी मेरी,
भागता भी रहा और थम भी न सका ।

ख़्वाबों की कश्ती का किनारा तू है,
मेरे सुकून का सहारा तू है,
हूँ फ़ना तुझ में,
ये इल्तजा है मेरी,
मेरे रूह-ओ-दिल की दीवारों पर,
तेरा (ख़ुदा) ही तेरा इशारा क्यूँ है ।

ख़ाक-ए-सुपुर्द कर देना जलाने से बेहतर मुझे,
ताकि, फिर उठ आऊं एक रोज़ बुलाने पर उसके ।

फिर एक लफ्ज़ ने छलनी सा कर दिया,
गोया, मरहम सा था और क़त्ल भी कर गया ।

उठ जो जाता रुख़ से नकाब,
सुबह में शाम ढल जाती,
दीदार-ए-हुस्न की शब् होती,
दिल की हसरतें तमाम हल जाती ।

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