Monday, May 30, 2011

लड़खड़ाने लगे मेरे कदम...

लड़खड़ाने लगे मेरे कदम, खुद-ब-खुद यूँ ही,
नशा शराब का था, या था बस यूँ ही,
क्यूँ बहक जाते है कदम, दो जाम पैमानों के बाद,
संभलते नहीं अरमान, कुचले मैले से,
आंसुओ के साथ, बिखर जाते है यूँ ही,
कुछ तो बात है इस "मैय" में, जो पत्थर की तरह पिघल जाते है हम,
दिल के अरमान निकलने लगते है और लोग कहते है कि बहक जाते है हम,
एक सुरूर सा छा जाता है, नशा बन कर यूँ ही,
लड़खड़ाने लगते है कदम, खुद-ब-खुद यूँ ही,
मैं ये सोचता हूँ कि यह नशा शराब का है, या है बस यूँ ही...

Saturday, May 28, 2011

क्यूँ बेबस ज़ज्बात लगते है...

क्यूँ कभी-कभी मुश्किल हालात हो जाते है,
क्यूँ कभी-कभी बेबस ज़ज्बात हो जाते है,
क्यूँ कभी-कभी मंजिलें दूर लगने लगती है,
क्यूँ कभी-कभी बे-दिल हालात हो जाते है,
क्यूँ राहें मिलती नहीं आसानी से,
क्यूँ हर लम्हा उनका ही एहसास रहता है,
क्यूँ युही मुश्किल हालात हो जाते है,
क्यूँ उनको सजा नहीं मिलती, जो सच में गुनाहगार है,
क्यूँ उनको ही सजा मिलती है, जो बेबस और लाचार है,
क्यूँ मंजिलें मिलती नहीं आसानी से,
क्यूँ बेबस ज़ज्बात रहते है,
क्यूँ मंजिलें दूर लगने लगती है,
क्यूँ मुश्किल हालात लगते है,
क्यूँ मंजिलें दूर लगती है,
क्यूँ बेबस ज़ज्बात लगते है...

Friday, May 27, 2011

कहने को वो जननी है...

कहने को वो जननी है, श्रष्टि की सूत्रधार है वो,
परन्तु फिर भी हर सुख से वंचित है, हर ख़ुशी से निर-आधार है वो,
कभी माँ, कभी बहन, कभी बेटी तो कभी सखी-सहेली है वो,
फिर भी हर सुख से वंचित, निर-आधार है वो,
कहने को तो दर्जे बहुत दिए है उससे, फिर क्यूँ उसका आँचल हमने मैला ही देखा है,
कहने को तो आज़ाद है, स्वछन्द नील गगन में, फिर क्यूँ बंदिशों और मरियादाओ का पहरे है,
निर्मल और कोमल मान, बाँध दिया उससे चार दीवारों में,
पर फिर क्यूँ हम भूल गए, कि यही तो महिषासुर रुपी दुखो की संघारक है वो,
कहने को तो जननी है, श्रष्टि कि सूत्रधार है वो,
परन्तु फिर भी हर सुख से वंचित है, हर ख़ुशी से निर-आधार है वो...

Thursday, May 26, 2011

जाने क्यूँ तुमसे नाता जोड़ा...

जाने क्यूँ तुमसे नाता जोड़ा, जाने क्यूँ खुद से मुह मोड़ा,
जाने क्यूँ तुम्हारे दिल की आवाज़ सुनी, जाने क्यूँ खुद की पहचान खोयी,
सोती रातों में रोता रहा, सिमट कर अपने अन्दर ही अन्दर,
खुद की पहचान खोता रहा, टूटा अन्दर यूँ ही बिखर कर,
छिन-भिन हो गया मेरा वजूद, खो दी मैंने अपनी पहचान,
बंद दिलों के अँधेरे कमरों में, भटकता रहा बन कर अनजान,
सोचता था कभी तो समझेगे, मेरे दिल कि हसरत,
पर वो न समझे क्यूंकि वो थे मुझसे अनजान...
पहले कह कर मुझको अपना, मुझको अपना कर लिया,
आज सुबह जब आँख खुली तो खुद से तनहा कर दिया,
बहुत यकीन था उन पर, फिर क्यूँ खुद को साबित कर दिया,
थे अजनबी पहले भी, आज खुद से साबित कर दिया,
पहले कह कर मुझको अपना, मुझको अपना कर लिया,
आज सुबह जब आँख खुली तो खुद से तनहा कर दिया,
जाने क्यूँ तेरे दिल आवाज़ सुनी, जाने क्यों खुद की पहचान खोयी,
जाने क्यूँ तुझसे नाता जोड़ा, जाने क्यूँ खुद से मुह मोड़ा,
जाने क्यूँ तुझसे दिल ये जोड़ा, जाने क्यूँ मैंने खुद हो छोड़ा...

क्या है ज़िन्दगी???

क्या है ज़िन्दगी???
किसी के लिए बे-दिल, बे-जान सी है ज़िन्दगी,
किसी के लिए खुश-दिल, आसान सी है ज़िन्दगी,
किसी के लिए बे-मन, बे-नाम सी है ज़िन्दगी,
किसी के लिए उसकी पहचान सी है ज़िन्दगी,
बे-रहम न होती ज़िन्दगी, तो शायद तुझसे मुलाकात न होती,
तुझमे दिल होता अगर, तो मुझसे पहचान होती ज़िन्दगी,
बे-रहम न होती ज़िन्दगी, तो जीने की लालसा न होती,
ऐसी बुझदिल न होती ज़िन्दगी, तो मेरे लफ़्ज़ों में जान न होती ज़िन्दगी,
किसी के लिए खुश-दिल, आसान सी है ज़िन्दगी,
किसी के लिए बे-मन, बे-नाम सी है ज़िन्दगी,
शायद मुझसे पहचान ही है ज़िन्दगी,
या फिर बस एक नाम सी है ज़िन्दगी,
बे-दिल, बे-मतलब, बे-जान सी है ज़िन्दगी,
शायद मुझसे अनजान है ये ज़िन्दगी...

जरूरी नहीं ग़ालिब...

जरूरी नहीं ग़ालिब कि मै (शराब) पी कर ही मज़ा आता है,
मै तो वो नूर है, जो अश्कों के सहारे जिया जाता है,
हम तो वो ज़र्रा है, जो आफ़ताब के दिल में सुलगा करते है,
जाम जो हांथों में लिया करते है, उन्हें होंठों से नहीं, आँखों से पिया करते है...

Tuesday, May 24, 2011

शायर, महफिलों में भी बैठ कर...

शायर, महफिलों में भी बैठ कर, पिया नहीं करते,
लोगो की ज़िन्दगी में रह कर भी, जिया नहीं करते,
यूँ ही कभी-कभी लिख देते है दिल की हसरत,
जाम, पैमाने में ले कर भी, पिया नहीं करते...
लोग जानते नहीं हमको, क्यूँ की मुलाकात किसी से किया नहीं करते,
पर मेरे हर लफ्ज़ से वाकिफ है वो, तभी चैन से रहा नहीं करते,
जब भी देखते है मेरे लफ़्ज़ों को, तड़प वो जाते है,
हम वो है जो, दूसरों के सहारे जिया नहीं करते,
यूँ ही कभी-कभी लिख देते है दिल की हसरत,
जाम, पैमाने में भर कर भी, पिया नहीं करते,
शायर, महफिलों में बैठ कर, पिया नहीं करते...

Monday, May 16, 2011

अब रातों को नींद अच्छी आती है...

अब रातों को नींद अच्छी आती है, दिखती हर चीज़ कुछ ख़ास है,
लगता है मौसम बदल रहा है, या फिर यह प्यार की शुरुआत है,
हर चेहरे में उसका ही अक्स नज़र आता है, क्या यह एक नए युग की शुरुआत है,
लगता है मौसम बदल रहा है, या फिर यह प्यार की शुरुआत है,
अब रातों को नींद अच्छी आती है, दिखती हर चीज़ ख़ास है...

कौन हूँ मैं? एक आम आदमी...

कौन हूँ मैं? एक आम आदमी,
गुमनामी की काली अंधियारी रातों में भटकता, एक आम आदमी,
लोगो की भीड़ में, एक नए अहम् की तलाश करता, एक आम आदमी,
जाने-पहचाने चेहरों के बीच में भी अनजान रहता, आम आदमी,
सड़कों पर होते खून और बलात्कारों को होते देख भी आँखे मूँद लेता, आम आदमी,
गमों और गुनाहों से अपनी गर्दन बचाता, आम आदमी,
अन्याय को बढते देख बस खुद के ज़हन से लड़ता, आम आदमी,
अपने ही परिवेश में खुद को नज़रबंद देखता, आम आदमी,
खुद को बेबस, लाचार और अपांग मान लेता, आम आदमी,
फिर भी अंदर ही अंदर सुलगता रहता, आम आदमी,
पर फिर भी खुद से सवाल करता, आम आदमी,
कौन हूँ मैं? एक आम आदमी...

Friday, May 13, 2011

कभी-कभी नहीं, हर पल मिली ज़िन्दगी...

कभी-कभी नहीं, हर पल मिली ज़िन्दगी,
कभी आज, कभी कल मिली ज़िन्दगी,
कभी बे-शकल, कभी हम-शकल मिली ज़िन्दगी,
कभी-कभी नहीं, हर पल मिली ज़िन्दगी...

भागती-दौड़ती भीड़ सी इस ज़िन्दगी में, एक पहचाने चेहरे सी मिली ज़िन्दगी,
तपती गर्मी में, पीपल की छाव सी मिली ज़िन्दगी,
प्यासे को, पानी के ताल सी मिली ज़िन्दगी,
कभी आज, कभी कल मिली ज़िन्दगी,
कभी-कभी नहीं, हर पल मिली ज़िन्दगी...

मुसीबतों से घिरी ज़िन्दगी, या मुसीबतों से घिरा मैं...

मुसीबतों से घिरी ज़िन्दगी, या मुसीबतों से घिरा मैं,
ग़मों से जान ज़िन्दगी, या ज़िन्दगी से जान ग़म,
पल-पल उलझती ज़िन्दगी, या हर पल से उलझता मैं,
मुसीबतों से घिरी ज़िन्दगी, या मुसीबतों से घिरा मैं...

अनजाने सुख की तलाश में भागती ज़िन्दगी, या अंधी खुशियों के पीछे भागता मैं,
ज़िन्दगी की तलाश में, ज़िन्दगी से दूर भागता मैं,
पल-पल उलझती ज़िन्दगी, या हर पल से उलझता मैं,
मुसीबतों से घिरी ज़िन्दगी, या मुसीबतों से घिरा मैं...

आज मेरे जन्म-दिवस पर...

आज सुबह कुछ नयी सी थी, पुरानी सी न थी,
मंद-मंद मुस्कुराती हवा, लगती कुछ सुहानी सी थी,
सूरज की मद्धम लालिमा भी, नए दिन का आगाज़ लिए करती मेरा अभिनन्दन,
आज मेरे जन्म-दिवस पर, बात कुछ सुहानी सी थी,
लफ़्ज़ों का मायाजाल बुनता जा रहा मैं,
धीरे-धीरे हर एक लफ़्ज़, चुनता जा रहा मैं,
अपना ही अभिनन्दन करते, मेरे लफ़्ज़ों को सुनता जा रहा मैं,
धीरे-धीरे हर लफ्ज़ चुनता जा रहा मैं,
मंद-मंद मुस्कुराती हवा में, बात कुछ सुहानी सी थी,
आज मेरे जन्म-दिवस पर, नयी कुछ कहानी सी थी,
सूरज की मद्धम लालिमा भी, नए दिन का आगाज़ लिए करती मेरा अभिनन्दन,
आज सुबह कुछ नयी सी थी, पुरानी सी न थी,
आज मेरे जन्म-दिवस पर, बात कुछ सुहानी सी थी...