Wednesday, January 23, 2013

परवाज़ कहाँ देखी है...















परों की, परवाज़ कहाँ देखी है,
मेरी आगाज़ कहाँ देखी है,
आज निकला हूँ घोसले से,
मेरी, आतिश-इ-आगाज़ कहाँ देखी है,
नन्हे पंख है मेरे, होसलों का आसमां बड़ा,
राह मुश्किल बेशक, मुझसा परवाज़ कहाँ,
थोड़े पंख हिला लू, थोड़ी हवा बहा लू,
थोड़ा रूप दिखा लू, थोड़ा समां बना लू,
मेरे पंखों से उड़ती मिट्टी के, गुबार कहाँ देखी है,
परों की परवाज़ कहाँ देखी है,
मेरी आगाज़ कहाँ देखी है,
आज निकला हूँ घोसले से,
अभी मेरी आतिश-इ-आगाज़ कहाँ देखी है ।

Monday, January 21, 2013

तकदीर-इ-तराश...












तकदीर-इ-तराश में गुजरी है ज़िन्दगी,
हम तो गोया ख़ाक ही जिए,
कम करते रहे "मय" मयखाने से,
और सोचा किये कम ही पिए,
जब जागे तो सोचे सवेरा हुआ,
सोये कहाँ थे ये खुद से पूछा किये,
तकदीर-इ-तराश में गुजरी है ज़िन्दगी,
हम तो गोया ख़ाक ही जिए ।

दरमियान...

बे बिन मौसम बरसात अच्छी नहीं,
आँखों-आँखों में गुजरी रात अच्छी नहीं,
जो रात गुजरी थी आँखों के दरमियान,
भीगे तकिये के सिरहाने गुजरी रात अच्छी नहीं,
ये बिन मौसम बरसात अच्छी नहीं ।

जब सवाल नोचने लगे ज़ेहन को, और रूह बेचैन हुई,
तो एक सवाल खुद से करा, क्या मैं सच में जिंदा हूँ कहीं ।

क्यूँ जिंदा लाश से हो कर घुमते हो काफ़िर,
क्या खुद की साँसों का वजूद नहीं ?

तरस गए थे मेरे कान जिन लफ़्ज़ों की ख़ातिर,
आज, उनसे भी मैंने दरकिनार कर लिया ।

तेरे लफ्ज़ मुनासिब हो पाते, तो मैं भी एक ग़ज़ल कहता,
कुछ लफ्ज़ जहाँ से मैं चुनता, और पानी सा मैं बहता,
कहीं मिलता ज़मी दरारों से, तेरे कर-कवलों को मैं छूता,
तेरे लफ्ज़ मुनासिब हो पाते, तो मैं भी एक ग़ज़ल कहता ।


Thursday, January 17, 2013

लम्हा...

मिल ही जाती ढूंढने से, नज़र तेरी पाक सी,
हर कोई खुदा यूँ होता, नज़र होती पाक सी,
क़त्ल करते खंजरों से, जुबां न यह साफ़ सी,
मिल ही जाती ढूंढने से, नज़र मेरी पाक सी ।

वक़्त से बे-वक़्त मिले हम एक रोज़,
वजूद पूछते में ही वक़्त गुज़रता गया ।

वक़्त तो गुज़रता ही रहेगा तेरे-मेरे दरमियान,
एक रोज़ तू भी थम कर देख मुझे तसल्ली से ।

मैं कोई लम्हा नहीं जो गुज़र जाऊँगा,
जाओ मुझसे दूर, पास नज़र आऊंगा,
तोड़ कर दुनिया की सारी प्रीत, रस्म निभाऊंगा,
महसूस हो तन्हाई तो असर आऊंगा,
मैं कोई लम्हा नहीं जो गुज़र जाऊँगा ।

Monday, January 14, 2013

गहरे सन्नाटों में...

बहुत बेसब्र सी महसूस होने लगी है ज़िन्दगी,
अपने ही रंज से खोने लगी है ज़िन्दगी,
सांसें पेश्तर अब भी रहती है ढलते जिस्म में,
कभी-कभी नज़र-इ-नासूर होने लगी है ज़िन्दगी ।

बैचैन था, था परेशान,
बिखरते जज्बातों का था घमासान,
टूट रहा था अन्दर से,
और रूह थी परेशान,
बिखरते जज्बातों का था घमासान ।

अपने साए से भी डरने लगा हूँ,
तड़प-तड़प के यूँ मरने लगा हूँ,
पर मौत भी न नसीब मुझे,
तनहा यादों से भी लड़ने लगा हूँ ।

गहरे सन्नाटों में, चीखती आवाज़ों से,
मैंने, मेरी रूह का पता पूछा,
पर, जवाब कुछ भी न मिला,
ख़ाक के सिवा ।

Wednesday, January 9, 2013

वजूद...

बहुत बेचैनी है अन्दर, तपिश बढ़ने लगी है,
लगता है जल रहा हूँ मैं या रूह जलने लगी है,
मातम सा मनाने लगी है सांसें, जुबां भी न साथ देती है,
शायद! मेरी बेबसी का सबब है और ख़ाक बढ़ने लगी है ।

मेरे अरमानों का यूँ तमाशा बनेगा सोचा न था,
और, आज हाल-इ-दिल हसरत बिखर कर रह गयी ।

तुझसे कहने की ख़ातिर लफ्ज़ कहाँ से लाऊं,
दिल-इ-हसरत दिखलाने को अक्स कहाँ से लाऊं,
खुद में उलझा-उलझा हूँ, कैसे तुझे बताऊँ,
तुझसे कहने की ख़ातिर मैं लफ्ज़ कहाँ से लाऊं ।

बहुत समझाया फिर भी न माना,
तड़पता रहा रात-दिन, जो था मुझसे अनजाना,
बात वजूद की थी तेरे मेरे दरमियाँ,
पर, "मैं" बा-वजूद था, था खुद के दरमियाँ ।

Friday, January 4, 2013

मैल चढ़ा है...

मन आँचल पर मैल चढ़ा है,
जात-पात का रंग मढ़ा है,
सोच बड़ी बिगड़ी सी है,
रूह पर जो यूँ मैल चढ़ा है,
मानुस को मानुस न समझे,
कैसा यह समाज खड़ा है,
बोटी-बोटी जिस्म को नोचे,
गिद्धों का संसार बसा है,
सोच बड़ी बिगड़ी सी है,
रूह पर जो यूँ मैल चढ़ा है,
जात-पात का रंग मढ़ा है,
मन आँचल पर जो यूँ मैल चढ़ा है ।

Thursday, January 3, 2013

शहर में...

बहुत बैचैनी सी है शहर में,
हर आदमी नोचने को है दौड़ता,
बस मास के लोथड़ों पर जिंदा है हर शक्स,
जो दूजों को नोचने को है दौड़ता ।

छोटी सी बात को यूँ दिल पर लगा लेते हो,
माना अहम् है सवाल, क्यूँ दिल में चुभा लेते हो,
कोई दिल से जुड़ा है, न रखो उससे पर्दा,
एक छोटे से मजाक को क्यूँ दिल से लगा लेते हो ।

कह लेने दे दिल-इ-हसरत, ज़ेब होते लफ़्ज़ों से,
नासूर से बने बैठे है, कमबख्त दिल के अन्दर ।

उदासी मातम मनाती, चीखती नज़र आती है,
जाने की दिल-इ-अन्दर शोर-गुल मचा हुआ है ।

Wednesday, January 2, 2013

मलंग...

लोग कहते मुझे मलंग और रहते मुझसे तंग,
देखे मेरा अंग और बदले अपने रंग,
कभी तोड़े-मोड़े माटी सा,
कभी कुचले-मुच्ले बाटी सा,
और कहते मुझे मलंग, पर रहते क्यूँ है तंग,
जब देखे मेरा ढंग तो बदले अपने रंग,
लोग कहते मुझे मलंग ।

एक शक्श कहीं...

सोच-सोच कर यह जाना,
एक शक्श कहीं मुझसा बेगाना,
गैरों में जाना पहचाना,
अपनों में वो है बेगाना,
सोच-सोच कर यह जाना,
एक शक्श कहीं मुझसा बेगाना,
उलझे हुए ख़्याल है उसके,
जाने कैसे सवाल है उसके,
दुनिया से है अनजाना,
एक शक्श कहीं मुझसा बेगाना ।