Monday, January 21, 2013

दरमियान...

बे बिन मौसम बरसात अच्छी नहीं,
आँखों-आँखों में गुजरी रात अच्छी नहीं,
जो रात गुजरी थी आँखों के दरमियान,
भीगे तकिये के सिरहाने गुजरी रात अच्छी नहीं,
ये बिन मौसम बरसात अच्छी नहीं ।

जब सवाल नोचने लगे ज़ेहन को, और रूह बेचैन हुई,
तो एक सवाल खुद से करा, क्या मैं सच में जिंदा हूँ कहीं ।

क्यूँ जिंदा लाश से हो कर घुमते हो काफ़िर,
क्या खुद की साँसों का वजूद नहीं ?

तरस गए थे मेरे कान जिन लफ़्ज़ों की ख़ातिर,
आज, उनसे भी मैंने दरकिनार कर लिया ।

तेरे लफ्ज़ मुनासिब हो पाते, तो मैं भी एक ग़ज़ल कहता,
कुछ लफ्ज़ जहाँ से मैं चुनता, और पानी सा मैं बहता,
कहीं मिलता ज़मी दरारों से, तेरे कर-कवलों को मैं छूता,
तेरे लफ्ज़ मुनासिब हो पाते, तो मैं भी एक ग़ज़ल कहता ।


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