Wednesday, January 9, 2013

वजूद...

बहुत बेचैनी है अन्दर, तपिश बढ़ने लगी है,
लगता है जल रहा हूँ मैं या रूह जलने लगी है,
मातम सा मनाने लगी है सांसें, जुबां भी न साथ देती है,
शायद! मेरी बेबसी का सबब है और ख़ाक बढ़ने लगी है ।

मेरे अरमानों का यूँ तमाशा बनेगा सोचा न था,
और, आज हाल-इ-दिल हसरत बिखर कर रह गयी ।

तुझसे कहने की ख़ातिर लफ्ज़ कहाँ से लाऊं,
दिल-इ-हसरत दिखलाने को अक्स कहाँ से लाऊं,
खुद में उलझा-उलझा हूँ, कैसे तुझे बताऊँ,
तुझसे कहने की ख़ातिर मैं लफ्ज़ कहाँ से लाऊं ।

बहुत समझाया फिर भी न माना,
तड़पता रहा रात-दिन, जो था मुझसे अनजाना,
बात वजूद की थी तेरे मेरे दरमियाँ,
पर, "मैं" बा-वजूद था, था खुद के दरमियाँ ।

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