Monday, January 14, 2013

गहरे सन्नाटों में...

बहुत बेसब्र सी महसूस होने लगी है ज़िन्दगी,
अपने ही रंज से खोने लगी है ज़िन्दगी,
सांसें पेश्तर अब भी रहती है ढलते जिस्म में,
कभी-कभी नज़र-इ-नासूर होने लगी है ज़िन्दगी ।

बैचैन था, था परेशान,
बिखरते जज्बातों का था घमासान,
टूट रहा था अन्दर से,
और रूह थी परेशान,
बिखरते जज्बातों का था घमासान ।

अपने साए से भी डरने लगा हूँ,
तड़प-तड़प के यूँ मरने लगा हूँ,
पर मौत भी न नसीब मुझे,
तनहा यादों से भी लड़ने लगा हूँ ।

गहरे सन्नाटों में, चीखती आवाज़ों से,
मैंने, मेरी रूह का पता पूछा,
पर, जवाब कुछ भी न मिला,
ख़ाक के सिवा ।

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