लिखत-लिखत कलम घिसे, गहरी होत दवात, मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास, कह अभिनव, नव-नूतन बनके, लिख दो दिल की आस, मन तरसे नए शब्दों को, बुझे न लिखन की प्यास...
Monday, September 30, 2013
रोज़ लिखता हूँ...
कहते है मैं रोज़ लिखता हूँ,
जाने क्या-क्या सोच लिखता हूँ,
ख़्यालों का बोझ लिखता हूँ,
कहते है मैं रोज़ लिखता हूँ ।
उलझा हुआ एक ओझ दिखता हूँ,
चेहरों पर मैं रोज़ दिखता हूँ,
फिर भी एक खोज दिखता हूँ,
कहते है मैं रोज़ लिखता हूँ ।
परायों में सोच दिखता हूँ,
अपनों में एक खोज दिखता हूँ,
क़ब्र पर मैं रोज़ दिखता हूँ,
कहते है मैं रोज़ लिखता हूँ ।
दर्द को हर रोज़ लिखता हूँ,
फिर भी कम-कम सोच लिखता हूँ,
नाम मैं उसका खोज लिखता हूँ,
कहते है मैं रोज़ लिखता हूँ ।
Friday, September 27, 2013
कॉपीराइट...
आसां सी पहेली पर आसान सी बाइट,
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट,
कोई बलैक है तो कोई है वाइट,
पर सबसे है मोहोब्बत लाइट-लाइट,
बहुत छोटी सी बात है, पर समझो गहरी-हाइट,
सबसे हो मोहोब्बत, पर न हो कॉपीराइट,
आसां सी पहेली पर आसान सी बाइट,
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट ।
एक मित्र बोले, अब तो "उस" पर भी कॉपीराइट,
तो भईया क्यूँ न बढ़ेगी फाइट,
मैंने समझाया, रिश्तों-नातो पर कैसा कॉपीराइट,
सब ही है अपने तो क्यूँ यह फाइट,
बात छोटी सी है, नहीं कॉपीराइट,
कर्म की हो महारत तो लगा लो कॉपीराइट,
जो रिश्तों में आये कॉपीराइट,
तो भईया बजने लगेंगे बर्तन, और होगी फाइट,
सो, हटा लो कॉपीराइट, और मिलाओ दिल टाइट,
न होगा कॉपीराइट और न होगी फाइट,
क्यूंकि, आसां सी पहेली पर आसान सी बाइट,
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट ॥
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट,
कोई बलैक है तो कोई है वाइट,
पर सबसे है मोहोब्बत लाइट-लाइट,
बहुत छोटी सी बात है, पर समझो गहरी-हाइट,
सबसे हो मोहोब्बत, पर न हो कॉपीराइट,
आसां सी पहेली पर आसान सी बाइट,
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट ।
एक मित्र बोले, अब तो "उस" पर भी कॉपीराइट,
तो भईया क्यूँ न बढ़ेगी फाइट,
मैंने समझाया, रिश्तों-नातो पर कैसा कॉपीराइट,
सब ही है अपने तो क्यूँ यह फाइट,
बात छोटी सी है, नहीं कॉपीराइट,
कर्म की हो महारत तो लगा लो कॉपीराइट,
जो रिश्तों में आये कॉपीराइट,
तो भईया बजने लगेंगे बर्तन, और होगी फाइट,
सो, हटा लो कॉपीराइट, और मिलाओ दिल टाइट,
न होगा कॉपीराइट और न होगी फाइट,
क्यूंकि, आसां सी पहेली पर आसान सी बाइट,
हम इंसानों पर नहीं चलता कॉपीराइट ॥
Thursday, September 26, 2013
यार की यारी मिली...
यार की यारी मिली, दुनिया सी प्यारी मिली,
एक मैं मिला, एक यारी मिली, खुशबू सी न्यारी मिली,
चार कदम ही चला, और भीड़ यूँ सारी मिली,
यार ने थामा मुझे, और भीड़, दुनिया सी प्यारी मिली,
यार की यारी मिली, दुनिया सी प्यारी मिली ।
था अकेला, दुविधा बहुत सारी मिली,
कुछ दोस्त बने, कुछ बने दुश्मन, दिल को चोटें बहुत सारी मिली,
कुछ ने थामा मुझे, कुछ ने भोंके ख़ंजर बारी-बारी मिली,
चार कदम ही चला, और भीड़ यूँ सारी मिली,
यार की यारी मिली, दुनिया सी प्यारी मिली ।
एक रोज़ वो भी मिला, आँखों में चमक लिए,
पुछा मुझसे, क्या खुशगवारी मिली,
मैं बोल, रोज़ अभिनव मिला, उसकी यारी मिली,
दुनिया बहुत प्यारी मिली,
एक मैं मिला, एक यारी मिली, खुशबू सी न्यारी मिली,
यार की यारी मिली, दुनिया सी प्यारी मिली ॥।
सीखा है...
पहाड़ों को चीर कर, मैंने बहना सीखा है,
आज़ाद हवा में उन्मुक्त रहना सीखा है,
कह दो ज़ंजीरों को मुझसे उलझे नहीं,
मैंने, बेड़ियों में बंद रहना नहीं सीखा है ।
आज़ाद हवा का परिंदा हूँ,
लफ़्ज़ों का पुलिंदा हूँ,
तबियत से उछालो हवा में,
मैं ऊँचाइयों का नुमयिन्दा हूँ,
पर्वतों पर भी, आस्मां में रहना सीखा है,
आज़ाद हवा में उन्मुक्त बहना सीखा है,
कह दो जंजीरों को मुझसे उलझे नहीं अभिनव,
मैंने, बेड़ियों में बंद रहना "नहीं" सीखा है ॥
आज़ाद हवा में उन्मुक्त रहना सीखा है,
कह दो ज़ंजीरों को मुझसे उलझे नहीं,
मैंने, बेड़ियों में बंद रहना नहीं सीखा है ।
आज़ाद हवा का परिंदा हूँ,
लफ़्ज़ों का पुलिंदा हूँ,
तबियत से उछालो हवा में,
मैं ऊँचाइयों का नुमयिन्दा हूँ,
पर्वतों पर भी, आस्मां में रहना सीखा है,
आज़ाद हवा में उन्मुक्त बहना सीखा है,
कह दो जंजीरों को मुझसे उलझे नहीं अभिनव,
मैंने, बेड़ियों में बंद रहना "नहीं" सीखा है ॥
Friday, September 13, 2013
एक कलाम लिखते है...
उन धुंधली पुरानी यादों के नाम लिखते है,
जो छोड़ चुकी है दामन मेरा,
जो जोड़ चुकी दामन तेरा,
उन अनकही बातों के नाम लिखते है,
चलो, आज एक कलाम लिखते है ।
यादों के तराने, क्या खूब बहाने,
कुछ किस्से मेरे भी यार पुराने,
उन ढलती शामों को सलाम लिखते है,
कुछ बिछड़े प्यारों के नाम लिखते है,
किसी अपने के नाम लिखते है,
चलो, आज एक कलाम लिखते है ॥
चलो, आज उसके नाम लिखते है, जिसने कलम थमाया,
चलो, आज उसका जाम रखते है, जिसने जाम जमाया,
चलो, धुंधली महरूम सी एक शाम लिखते है,
आओ, गुमनामो को सलाम लिखते है,
जो छोड़ चुकी है दामन मेरा,
जो जोड़ चुकी दामन तेरा,
उन अनसुनी यादों के नाम लिखते है,
चलो, आज एक कलाम लिखते है ॥।
Thursday, September 5, 2013
उधेड़बुन...
वजूद…
क्यूँ मेरे ही वजूद की हस्ती खोने लगी,
क्यूँ रूह मेरी ज़ार-ज़ार हो रोने लगी,
क्या मौत चाहती है ज़िन्दगी,
अब ज़िन्दगी बोझ सी तनहा होने लगी ।
हफ़स, बात तेरी न थी,
फिर क्यूँ चुभन मुझे होने लगी,
क्या मौत चाहती है ज़िन्दगी,
जो अब, ज़िन्दगी बोझ सी तनहा होने लगी ।।
याद…
याद तेरी आने लगी,
लबों पर एहसास तेरा लाने लगी,
मैं, जागा ही था ख्यालों से,
और तेरे ख़्वाबों की नींद मुझे आने लगी,
लबों पर एहसास तेरा लाने लगी,
मुझे याद तेरी आने लगी ।
कल तक खामोश था खुद में,
आज, जान तुझमें समाने लगी,
राह तन्हा भी कोई,
पसंद मुझे आने लगी,
जागा ही था ख्यालों से,
तेरी नींद मुझे ख्वाबों में बुलाने लगी,
लबों पर एहसास तेरा लाने लगी,
तेरी याद मुझे आने लगी ।।
याद पुरानी आती है…
एक याद पुरानी आती है,
कुछ बात मुझे बताती है,
एक आस नयी जगाती है,
एक याद पुरानी आती है ।
एक किस्सा यार पुराना सा,
एक गुज़रा नया ज़माना सा,
एक बात नयी बताती है,
एक याद पुरानी आती है ।।
ख़्याल मिला…
एक उर्स मिला, एक ख़्याल मिला,
एक उलझा सा सवाल मिला,
किसी ने शायर कहा, तो किसी का मलाल मिला,
एक उर्स मिला, एक ख़्याल मिला,
एक उलझा सा सवाल मिला ।
कभी रेशम सा रुमाल मिला,
कभी करारा एक सवाल मिला,
क्यूँ लिखता हूँ मैं?
कभी ऐसा भी एक सवाल मिला,
किसी ने शायर कहा, तो कभी किसी का मलाल मिला,
एक उर्स मिला, एक ख़्याल मिला,
एक उलझा सा सवाल मिला ।।
कमाल था…
उनके ख़्याल में एक कमाल था,
जाने कैसा ये उलझा सवाल था,
मैं तन्हा हो कर भी तन्हा नहीं,
ये मौसकी थी या बस उनका कमाल था ।
वो आये और कब गुज़र गए,
इसका ता-उम्र मलाल था,
आशिक़ मैं भी हुआ अभिनव,
ये बस उनका कमाल था,
मैं तन्हा हो कर भी तन्हा नहीं,
ये मौसकी थी या बस उनका कमाल था ।।
ख़्वाब-ए-मोहोब्बत…
कोई मजनू कहता…
क्या निकाले इस दिल से अब अभिनव,
क्या निकाले इस दिल से अब अभिनव,
खुद का पता आज-कल नहीं मिलता,
कोई मुफ़्लिस तो कोई मजनू कहता है,
और वो कहते है तुम में अभिनव नहीं मिलता ।
क्यूँ इतना दिल लगा बैठा हूँ,
क्यूँ खुद को तुझमे समां बैठा हूँ,
अब तो सांसें भी चलती है तेरे नाम से,
खुद को तुझमे इतना उतार बैठा हूँ ।
अरसा हुआ…
कब तक…
अरसा हुआ…
एक अरसा हुआ तुझे गुज़रे,
पर तेरे आने की इक उम्मीद अभी बाकी है,
हसरतें बहुत है दिल में,
तन्हाई में तेरी याद जागी है ।
मत करो हमें याद, बस एक बात दे दो,
बंद होने से पहले आँखों को ख़्वाब दे दो,
तन्हाई का मंज़र अब नहीं ढलता है,
इस डूबते अभिनव को लफ़्ज़ों की सांस दे दो ।
कब तक…
कब तक राह तकते रहोगे उनकी,
वो वक़्त गुज़र गया है,
देखो बदली वादियों को,
समां भी सारा बदल गया है,
एक याद के सहारे ज़िन्दगी नहीं कटती अभिनव,
मंज़िल की चाह में वक़्त ही सारा बदल गया है ।
आतिश-ए-इश्क़ में वो भी फ़ना हुए,
जो हुसन को यूँ छुपाये फिरते थे,
और, फ़ना वो भी हुए,
जो नज़रें चुराए फिरते थे,
नसीब को दिल समझ बैठे है अभिनव,
ख़ाक वो भी हुए जो जिम्मा उठाये फिरते थे ।
तनहा...
थक गया हूँ खुद से तनहा लड़ते-लड़ते,
चैन से अब जी भर सोना चाहता हूँ ।
उसने वो चुना जो उसका अपना था,
और, मैंने वो खोया जो पाया ही नहीं ।
रहता कौन है यहाँ उम्र भर के लिए,
हमसफ़र बदलते रहते है रोज़ इस शहर में ।
था ही कब मेरा, जो "कश्मीर" हुआ,
सौदा मैंने किया और मैं ही "फ़कीर" हुआ ।
शायद, पतन का वक़्त नस्दीक है,
वरना, मेरी रूह को यूँ बेचैनी न होती ।
चैन से अब जी भर सोना चाहता हूँ ।
और, मैंने वो खोया जो पाया ही नहीं ।
हमसफ़र बदलते रहते है रोज़ इस शहर में ।
था ही कब मेरा, जो "कश्मीर" हुआ,
सौदा मैंने किया और मैं ही "फ़कीर" हुआ ।
शायद, पतन का वक़्त नस्दीक है,
वरना, मेरी रूह को यूँ बेचैनी न होती ।
दिल-ए-हसरत...
झूठे चेहरों पर चलते है यहाँ रिश्ते,
हर कोई गमज़र्द है यहाँ किसी के गम में ।
कोई मिल ही जाएगा राह चलते,
इतना भी कमज़र्फ नहीं मेरा नसीब ।
वो, आये भी है और खो गए अंधेरों में,
मेरी रौशनी का सहारा भी तनहा सा मिला ।
आज, खुद की बदजुबानी से हारा हूँ मैं,
सोचता हूँ, जुबां से जीता क्या हूँ अब तक ।
बड़े बेमानी से हो गए है रिश्ते यहाँ,
जानते सब है, पहचानते नहीं ।
गम उसने दिए जो मेरा अपना था,
हम तो ख़ाक ही ग़ैरों को दुश्मन बनाए फिरते थे ।
और भी मंज़र है गुज़रे मुफलिस-ए-आलम के,
पर तू न गुज़रा, तेरी रूह न गुजरी ।
रोकते है मुझे कभी कभी,
पर हक नहीं जताते हम पर ।
फिर से महकने लगी है ज़िन्दगी तेरे आने के बाद,
मैं यह सोचता हूँ कि असर तेरा है या ज़िन्दगी का ।
इक प्यार ही तो है जो बांधे हुए है तुमसे,
वर्ना, मैं तो बंजारा हूँ उड़ता बादल सा ।
वो मेरे दिल की हसरतों को मेरी शायरी का सबब समझ लेते है,
कोई कह दे जा कर उनसे, ये शेर नहीं दिल-ए-हसरत है मेरी ।
वो क़त्ल भी करते है तो हँस-हँस कर,
हम-कफ़न न हो तो क्या चीज़ ।
कुछ यूँ ही...
इस इश्क़ के बाज़ार में हर चीज़ बिका करती है ।
फुरसत किसे है यहाँ किसी और की,
सब ही तमाम है खुद मतलबों में ।
वो ख़ाक ही मिले है कमज़र्फ,
जो बेमौत मरे खामखा ।
चीखती रही रात भर मेरे कानों में आवाज़ें,
जिन्हें, मैं कभी सुनना न चाहता था ।
उसने, एक ही सांचे में तोल दिया हमको भी,
और, हम अब तक खुद को दूजो से अलग समझा करते थे ।
क्यूँ तेरी आदत सी होने लगी है मुझको,
यूँ तेरे बिन सब सूना सा लगता है ।
बहुत कमज़र्फ है कुछ लोग यहाँ,
नज़रंदाज़ भी उसको करते है जो चाहतें है ज्यादा ।
चाहतों की चोटों पर कौन गौर करता है ज़माने में,
हर कोई घूमता है यहाँ दर्द देने की ख़ातिर ।
हमनें भी देखे है बहुत से इश्क़-ए-समुन्दर,
पर कोई देखा नहीं जो बिन डूबे उस पार पहुंचा हो ।
आशिक़, कितने ही डूबे है यहाँ इस इश्क़ में अभिनव,
पर, कोई दिल से हँसता हुआ नहीं मिलता ज़माने में ।
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