Thursday, September 5, 2013

कुछ यूँ ही...

मैंने, होते देखे है आशिकों के सौदे यहाँ,
इस इश्क़ के बाज़ार में हर चीज़ बिका करती है ।

फुरसत किसे है यहाँ किसी और की,
सब ही तमाम है खुद मतलबों में ।

वो ख़ाक ही मिले है कमज़र्फ,
जो बेमौत मरे खामखा ।

चीखती रही रात भर मेरे कानों में आवाज़ें,
जिन्हें, मैं कभी सुनना न चाहता था ।

उसने, एक ही सांचे में तोल दिया हमको भी,
और, हम अब तक खुद को दूजो से अलग समझा करते थे ।

क्यूँ तेरी आदत सी होने लगी है मुझको,
यूँ तेरे बिन सब सूना सा लगता है ।

बहुत कमज़र्फ है कुछ लोग यहाँ,
नज़रंदाज़ भी उसको करते है जो चाहतें है ज्यादा ।

चाहतों की चोटों पर कौन गौर करता है ज़माने में,
हर कोई घूमता है यहाँ दर्द देने की ख़ातिर ।

हमनें भी देखे है बहुत से इश्क़-ए-समुन्दर,
पर कोई देखा नहीं जो बिन डूबे उस पार पहुंचा हो ।

आशिक़, कितने ही डूबे है यहाँ इस इश्क़ में अभिनव,
पर, कोई दिल से हँसता हुआ नहीं मिलता ज़माने में ।

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