Thursday, December 5, 2013

कुछ यूँ ही...

संग-दिल हो कर, हमने भी देखे है ज़माने कई,
पर, कुछ भी नहीं ख़ाक के सिवा ।

एक खालीपन सा लिए फिरते रहा मैं,
ता-उम्र ज़िन्दगी ।

तलाश-ए-अक्स में शख्स की मौत हुई,
और, यूँ ही गुज़री बे-वजह ज़िन्दगी सारी ।

सब अकेले ही चलते है राहों में,
कोई साथी नहीं मेरा अभिनव ।

तुम भी रुक ही गए आख़िर,
एक वक़्त की नुमाइश ऐसी हुई ।

कहीं दूर चले जाना चाहता हूँ मैं,
जहाँ, मुझको मैं सुनाई न दूं ।

तमाशबीन से मिलते है मंज़र सारे,
बस मैं नहीं मिलता आज-कल ।

मेरे दर्द की नुमाईश कुछ हुई ऐसे,
कि, रो भी न सका और हँसता भी रहा अभिनव ।

नज़रें बदल गयी शायद मेरी,
आज, मैं ही नहीं मिलता भीड़ में अक्सर ।

ज़िन्दगी का क्या है, कट ही जाती है कटते-कटते,
बस साँसों की ये डोर ही नहीं कटती अभिनव ।

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