Sunday, December 8, 2013

मोहोब्बत का सितम...

बड़े बेसब्र है ये दूरियों के पल,
काटे कटते ही नहीं इंतज़ार में ।

आँखें भी थक गयी है सुर्ख़ होते-होते,
पानी की तलाश में तनहा हो कर ।

कब तक आरज़ू लिए तकता रहूँ वक़्त के पहरों को,
कब से रुके है कमबख्त इक ही मोड़ पर ।

मेरे चेहरे पर इतनी पेशानियाँ न थी पहले,
शायद, वक़्त की झुर्रियाँ और सब्र के ज़ख्म नज़र आते है ।

बड़ी परेशां है रात आज,
गुज़रती ही नहीं मेरे कहने से ।

ओ रात के मुसाफ़िर हमको भी साथ ले-ले,
कुछ वक़्त तुझ संग ही काट लेगा अभिनव ।

पल न दे जुदाई के ए ख़ुदा,
खुद से दूरियां बर्दाश्त नहीं होती ।

उफ़ ये मोहोब्बत का सितम,
न आराम है, और न सुकून ।

आरज़ू-ए-इश्क़ की बस इतनी रज़ा हो,
कि, कोई पल न गुज़रे उसके बिना ।

कुछ ऐसी भी रंजिशें हुई मोहोब्बत की,
कि, कुछ अपनों की मोहोब्बत मुझसे रूठ गयी ।

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