बहुत मतलबी हो गया हूँ तुझसे मिलने के बाद,
तेरे जाने के डर से रूह को तकलीफ़ होती है ।
दिन पर दिन तुझसे मोहोब्बत करते-करते,
कब आदत सी बन गयी ख़बर नहीं ।
बड़ी परेशां सी गुजरी है रात,
सोचता हूँ सुबह का हश्र क्या होगा ।
आज, फिर उसका दिल दुखाया है,
सोचता हूँ खुद को सजा क्या दूं ।
मंदिरों के बाहर एक कतार देखी है मैंने,
ज़िन्दगी की आस में हाँथ जोड़े खड़े रहते है ।
आधे अक्षर में पूरी मोहोब्बत की मैंने,
आधे, लफ़्ज़ों को लफ़्ज़ों में ही छोड़ा अभिनव ।
बड़े चेहरे बदलने पड़ते है वक़्त-दर-वक़्त,
टूट कर, एक ऐसा भी हुनर पाया हमने ।
बर्दाश्त की भी हद देखी है अभिनव,
हम पर भी इश्क़ का कुछ यूँ रंग चढ़ा ।
ख़्वाबों की भी बोलियाँ लगती है इस बाज़ार में,
आशिकों की फितरत कुछ ऐसी भी देखी है ।
तेरे जाने के डर से रूह को तकलीफ़ होती है ।
दिन पर दिन तुझसे मोहोब्बत करते-करते,
कब आदत सी बन गयी ख़बर नहीं ।
बड़ी परेशां सी गुजरी है रात,
सोचता हूँ सुबह का हश्र क्या होगा ।
आज, फिर उसका दिल दुखाया है,
सोचता हूँ खुद को सजा क्या दूं ।
मंदिरों के बाहर एक कतार देखी है मैंने,
ज़िन्दगी की आस में हाँथ जोड़े खड़े रहते है ।
आधे अक्षर में पूरी मोहोब्बत की मैंने,
आधे, लफ़्ज़ों को लफ़्ज़ों में ही छोड़ा अभिनव ।
बड़े चेहरे बदलने पड़ते है वक़्त-दर-वक़्त,
टूट कर, एक ऐसा भी हुनर पाया हमने ।
बर्दाश्त की भी हद देखी है अभिनव,
हम पर भी इश्क़ का कुछ यूँ रंग चढ़ा ।
ख़्वाबों की भी बोलियाँ लगती है इस बाज़ार में,
आशिकों की फितरत कुछ ऐसी भी देखी है ।
बहुत दिनों बाद मुलाक़ात हुई तुझसे,
सोचता हूँ कुछ पल यूँ ही ठहर लूं ।
बड़ी गफ़लत है ज़िन्दगी,
तू पास भी है फिर भी एक दूरी है ।
पुरानी तस्वीरें देख कर गहराता है प्यार तेरा,
मैं ये सोचता हूँ कि कशिश तस्वीरों में है या प्यार में तेरे ।
इश्क़ के बाज़ार में सौदे भी अजीब किये मैंने,
कि, हर जगह बस दर्द का मुनाफ़ा हो गया ।
दिखता है चेहरा ही बाज़ार में,
यहाँ इश्क़ में दिल नहीं दिखा करते ।
बहुत टटोल कर हाल-ए-दिल ये जाना,
कि, मरते भी तुम पर, डरते भी तुम पर ।
मैंने देखे है बहुत से अभिनव,
पर देखा नहीं मुझसा साकी ।
ख़्वाबों की बुलंदियों पर उलझा कोई बाशिंदा है,
ख्वाहिशों की आस में सुलझा कोई नुमायिन्दा है,
चल तो रहा है वो, पर वजह क्या है,
ज़ख्म बहुत सारे है, पर सज़ा क्या है,
क्या अजब सा रिश्ता है तेरा-मेरा,
दूर हो के भी ख़ुशी और पास न हो के भी गम है ।
तलाश-ए-लफ्ज़ की शिरकत लिए चलते गए,
और कहते गए उनसे, चलो, मुकम्मल हुआ तो फिर मिलेंगे ।
क्यूँ मौजूद नहीं हूँ खुद में,
जाने कैसा ये खालीपन है ।
रूह सी कांप जाती है तेरे जाने के डर से,
सोचता हूँ, बिन तेरे ज़िन्दगी का हश्र क्या होगा ।
लफ्ज़ भी नहीं मिलते मुनासिब बिन तेरे,
कैसा ये तुझसे नाता जुड़ा है ।
ताज़गी सी लिए फिरता हूँ वक़्त-हर-वक़्त,
कुछ इस तरह तेरी रूह मेरे साथ होती है ।
ज़र्रा-ए-फ़राश से निकला है अभिनव,
मुझको, मातम की चीख़ों में ढ़ेर न कर ।
बहुत ख़ामोशी है शहर में,
शायद अन्दर उथल-पुथल है ।
बस खफ़ा हूँ शायद खुद से ही,
कि होता वही है जो चाहता नहीं ।
काँच के टुकड़ों सा बिखर गया हूँ मैं,
मेरे वजूद की कोई रिहाइश नहीं बाकी ।
No comments:
Post a Comment