Wednesday, January 25, 2012

फट गया वो बादल...

फट गया वो बादल, जो घुमड़ रहा था दिल के बंज़र कोनो में,
कभी बनता, कभी बिगड़ता तो कभी जलता दिल के कोनो में,
ज्वाला बुद्धिमता पर हावी थी,
वक़्त की यह नइंसाफी थी,
बरसें जो बादल, पिघल गया यह दिल,
अश्कों के सेलाबों में, भीग गया यह दिल,
फट गया वो बादल, जो घुमड़ रहा था दिल के कोनो में,
कभी बनता, कभी बिगड़ता तो कभी जलता दिल के कोनो में...

बे-मतलब जो यह बात हुई,
कटु-लफ़्ज़ों की बरसात हुई,
मैं जला, कुछ अंग जले,
कुछ अधूरे लफ़्ज़ों के संग जले,
जल उठे वो बादल, कटु-लफ़्ज़ों की बरसात हुई,
जो काले, कुचले, मैले थे, जल कर क्यूँ यूँ ख़ाक हुई,
फट गया वो बादल, जो घुमड़ रहा था कोनो में,
जो बनता था, था बिगड़ता, रहता दिल के कोनो में...

Thursday, January 19, 2012

दिन हुआ है...

दिन हुआ है, रात भी होगी,
कुछ पल मिलेंगे तो बात भी होगी,
ज़िन्दगी चाहे छोटी सी हो,
पर तुम्हारे साथ की एक आस भी होगी,
दिन हुआ है तो रात भी होगी...

गर! सफ़र साथ हुआ,
कदम-हम-कदम मिलायेंगे,
मिलने की तमन्ना तो करके देखे, 
खिदमत में हाज़िर पायेंगे,
हाँ, दोस्ती की है, बा-जरूर निभाएंगे,
ज़िन्दगी रहे न रहे, खुद की महक छोड़ जायेंगे,
कुछ पल मिलेंगे ज़िन्दगी के तो बात यूँ भी होगी,
चाहतों की मुलाकात भी होगी,
एक साथ की आस जागी है,
यूँ दिन हुआ है तो रात भी होगी...

Sunday, January 15, 2012

क्यूंकि मैं मर्द था...

बहुत कमज़र्फ हो, तेरे मुर्दे जिस्म को गले से लगाया,
अश्क, एक भी न गिरा सका, क्यूंकि मैं मर्द था,
हाँ, तेरे जाने से गम्ज़र्द था,
पर मैं रो भी न सका, क्यूंकि मैं मर्द था,
हाँ, छोटा सा लाया था तुझको,
अपने बच्चे से पाया था तुझको,
पलकों में अश्क थे, पर चेहरा यूँ भिगो न सका,
सब रो दिए यह कह "तू चला गया" हमे छोड़ कर,
पर मैं रो भी न सका क्यूंकि मैं मर्द था...

Sunday, January 8, 2012

इश्क का रोग...

इश्क का रोग न अच्छा है यारों,
यह तो धागा कच्चा है यारों,
दर्द तो हर तरफ है ज़माने में,
मैंने देखे है कुछ आशिक मयखाने में,
हर किसी को अजब यह बिमारी है,
जैसे देश में भूख और बेरोज़गारी है,
हम तो अकेले ही अच्छे है यारों,
इस प्यार के मर्ज़ से दूर ही अच्छे है यारों,
ये तो धागा कच्चा है यारों,
इश्क का रोग न अच्छा है यारों...

बचपन के चेहरे...

बचपन के चेहरे,
कुछ काले तो कुछ रंगीन सुनहरे,
यादों के घने अंधियारे में,
खोजते आस की चमक सुनहरी,
कभी यादों का भोझ यह बस्ता,
तो कभी खाली-खाली यह रास्ता,
कभी जवानी की धूप तो कभी बचपन के सावन सुनहरे,
यह बचपन के नन्हे चेहरे...

आज सुबह कुछ बचपन से यूँ मुलाकात हो गयी,
आँखों-आँखों में जाने कितनी बात हो गयी,
कुछ अश्क बिखरे मेरे, कुछ यादों की बरसात हो गयी,
आज सुबह बचपन से यूँ मुलाकात हो गयी,
बिखरे कुछ यादों के चेहरे,
कुछ काले-धुंधले तो कुछ रंगीन सुनहरे,
ये बचपन के चेहरे...

Wednesday, January 4, 2012

मैं जागा हूँ...

आज, मैं जागा हूँ,
खुद की दुनिया से भागा हूँ,
चीख और पुकार में मैं, चिल्ला भी न पाया,
भीड़ और अंधियारों के बीच, खोता मेरा साया,
आज, खुद को बनते-बिगड़ते लोकपाल सा पाया हूँ,
खुद की दुनिया से भाग आया हूँ...

रोज़ भूख, भीड़ की मारी, यह बेचारी ज़िन्दगी,
हर दुःख-सुख को रोती क्यूँ है ज़िन्दगी,
हर सपने को सच होने की आस में खोती ज़िन्दगी,
आज, खुद को बनते-बिगड़ते लोकपाल सा पाया हूँ,
खुद की दुनिया से भाग आया हूँ,
क्यूँ भीड़ और अंधियारों में खोता मेरा साया,
चीख और पुकार में मैं, चिल्ला भी न पाया,
आज, खुद की दुनिया से भागा हूँ,
लगता है शायद, मैं जागा हूँ...

Tuesday, January 3, 2012

दे दो उसको पंख नए...

जोड़ो खुद की कल्पनाओ को, दे दो उसको कुछ पंख नए,
रंग दो सारे चेहरों को, जो काले पड़ गए जंग लगे,
चाहे हरा रंगों या लाल रंगों, हर चेहरा खुश-हाल रंगों,
सबके दुःख और दर्द मिटा कर, हर चेहरा खुश-हाल रंगों...

चेहरे का मोती भी चमके सोना, फीकी पड़ती मुस्कान न हो,
रंग दो सारे चेहरों को, जहाँ अलग-थलक का मान न हो,
जोड़ो खुद की कल्पनाओ को, दे दो उसको कुछ पंख नए,
रंग दो सारे चेहरों को, जो काले पड़ गए जंग लगे,
कुछ-कुछ चेहरों पर लिख दो,
जो आये, जी भर लिख दो,
कोई झूठी सच्ची शान न हो,
दिखावे का सम्मान न हो,
रंग दो सारे चेहरों को, जो काले पड़ गए जंग लगे,
जोड़ो खुद की कल्पनाओ को, दे दो उसको पंख नए...

Monday, January 2, 2012

नज़र बदल कर देख ज़रा...

जो चला गया, सो चला गया,
जो आना है अब उसकी सोच,
नज़र बदल कर देख ज़रा,
हर चेहरे में न तू उसको खोज,
दर्द तेरा जो भी है,
अश्कों में न बहा उससे,
आज आईने में देख कर तू, खुद को न तू ऐसे कोस,
नज़रें बदल कर देख ज़रा, हर चेहरे में तू खुद को खोज...

साल की वो आख़िरी रात...

साल की वो आख़िरी रात,
चार दोस्त, हांथों में हाँथ,
कुछ किस्से यार पुराने से,
कुछ ताज़ा नये ज़माने से,
खाने पर लड़ते, बचपन के ज़माने से,
चेहरों में यादों को खोजा करते नये तराने से,
कुछ हसरत नये साल को ताज़ी,
कुछ यादें कल की फीकी बासी,
मिले जो यार, कल गुज़रे ज़माने से,
याद आये, किस्से नये पुराने से,
वो चार दोस्त, हांथों में हाँथ,
साल की वो आख़िरी रात...

इस गुज़रे साल में मैं क्या छोड़ आया हूँ...

इस गुज़रे साल में मैं क्या छोड़ आया हूँ,
जाने क्या-क्या खोया, क्या-क्या पाया हूँ,
कुछ रिश्ते टूटे उलझे से,
कुछ नये जोड़ लाया हूँ,
इस गुज़रे साल में मैं क्या छोड़ आया हूँ...

चाहता उनको रहा जो चाहत के काबिल न थे,
खोजता उनको रहा जो नज़रों से ओझिल रहे,
दूसरों की धुन में खोते-खोते, आज खुद को ही भूल आया हूँ,
इस गुज़रे साले में मैं क्या छोड़ आया हूँ...

आदत खुद की बदल गयी, फिर चाहत क्यूँ न बदल गयी,
नज़रों को पढ़ते-पढ़ते, लफ़्ज़ों की भाषा क्यूँ यह बदल गयी,
यौवन को खोजते-खोजते, बचपन को पीछे छोड़ आया हूँ,
इस गुज़रे साल में मैं क्या छोड़ आया हूँ...

सड़कों पर घूमा करता मैं,
रातों को जगता फिरता मैं,
तकिये के सिरहाने, गीली यादों को छोड़ आया हूँ,
इस गुज़रे साल में जाने क्या छोड़ आया हूँ...

मैला आँचल, गन्दी काया...

मैला आँचल, गन्दी काया,
गोद में मैं, तेरी छाया,
एक चादर तन ढकने को,
नीला अम्बर मन रखने को,
आती जाती हर भीड़ में, पुकार लगाती तू,
मेरा जी भरने को, क्यूँ गिड़-गिडाती तू...

एक रूपया, मैं भूखे पेट,
भद्दी काया, वो मोटा सेठ,
गन्दी, ज़हरीली नज़रों से क्यूँ नज़र लगाता वो,
हवस की आंधी में बह, क्यूँ लार गिराता वो,
गन्दी तेरी काया, पर क्या तुझमे पाया,
मैं सोच-सोच बिलखती, आंसू गिराती तू,
मुझको मैली चादर में ढक, खुद छुप सी जाती वो...

मैं सोचु ये तन ढक कर,
बहकू मन रख कर,
मूँद-मूँद अश्क बहा, क्यूँ मुझे छुपाती तू,
खुद अपनी ही काया में, यूँ छुप सी जाती तू,
क्यूँ यह मैला आँचल, क्यूँ यह गन्दी काया,
जाने क्यूँ नंगी आँखों में, बसती यह गन्दी माया,
जब गन्दी तेरी काया तो क्या तुझमे पाया,
गन्दी, ज़हरीली नज़रों से क्यूँ जिस्म नोचती कैसी माया,
क्यूँ नारी होना हुआ गुनाह,
स्तनधारी होना हुआ गुनाह,
जाने क्यूँ भूले ममता की आवाज़, वो माया,
गन्दी तेरी काया, फिर क्या तुझमे पाया,
जाने क्यूँ जी कर जियी नहीं, तेरी नन्ही छाया,
मैला आँचल, गन्दी काया,
गोद में मैं, तेरी छाया...

अश्कों में खोता बचपन....

रोती, बिलखती ज़िन्दगी, क्यूँ सड़कों पर खोता बचपन,
धुएं और शोर के बीच, अश्कों में खोता बचपन,
भूखे पेट, तरसती आँखे,
फिर भी मुस्कुराती ज़िन्दगी, चमकती आँखे,
कभी किताबों तो कभी फूलों को बेचने की जुगत में खोता बचपन,
तो कभी लाचारी और अपंगता में खोता बचपन,
क्यूँ रोती, बिलखती ज़िन्दगी, क्यूँ सड़कों पर खोता बचपन,
धुएं और शोर के बीच, क्यूँ अश्कों में खोता बचपन...

भूखे पेट, तरसती आँखे,
दो रुपये, तरसती सांसें,
क्यूँ धुओं में खोता बचपन,
चोरी, नशा और ज़ुल्म में पड़,
सड़कों पर रोता बचपन,
ये रोती, बिलखती ज़िन्दगी, ये सड़कों पर खोता बचपन,
धुएं और शोर के बीच, अश्कों में खोता बचपन...

बाबूजी, एक रूपया दे दो,
कहके आया पास मेरे,
चेहरे पर मोती, पेट में भूख,
ले आया वो पास मेरे,
मैंने पुछा, क्या होगा जो एक रूपया मैं दे दूंगा,
बोला वो, एक रूपया जोड़, माँ का पेट मैं भर लूँगा,
गुज़र गया आँखों के आगे, क्यूँ उसका सारा बचपन,
हाँथ जोड़ क्यूँ खड़ा रहा, आँखों के आगे सारा बचपन,
ये रोती, बिलखती ज़िन्दगी, ये सड़कों पर खोता बचपन,
धुएं और शोर के बीच, अश्कों में खोता बचपन....

Sunday, January 1, 2012

क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी...

सीखा मैंने आज,
क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी,
तिल-तिल कर, गल-गल कर, क्यूँ जीते है ज़िन्दगी,
द्वेष और घर्णा का रूप रख, चली आती है ज़िन्दगी,
क्यूँ अपनी शर्तों पर यूँ नाचती है ज़िन्दगी,
सीखा मैंने आज, क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी...

भूख से व्याकुल तन,
भोला-भला बचपन,
एक रुपये को सड़क पर रोती क्यूँ है ज़िन्दगी,
अपनी शर्तों पर क्यूँ नाच नाचती ज़िन्दगी,
सीखा मैंने आज, क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी...

मैं तो लफ़्ज़ों का प्यासा,
मेरे जीने की आशा,
पर सब तो है, लालच में उद्दंड,
अपनी खता मान कर चुप मैं, देख कर हूँ यह दंग,
सीखा मैंने आज, क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी...

प्यासा मन, प्यासी आशा,
धूमिल होती सब परिभाषा,
लफ़्ज़ों का माया-जाल,
कुबेर, धन से क्यूँ कंगाल,
एक-एक रुपयों को तरसती क्यूँ है ज़िन्दगी,
भूख और मजबूरी से, बेबस क्यूँ है ज़िन्दगी,
सीखा मैंने आज, क्यूँ जीते है लोग ज़िन्दगी...