Friday, July 19, 2013

इश्क़ का कारोबार...

इतने आशिक़ है यहाँ,
ये इश्क़ का कारोबार अच्छा है । 

जज़्बातों का देखा है होते मैंने सौदा,
आज कल खरीदार अच्छे मिलते है ।

बड़ी कीमत लगा खरीदी जाती है आशिक़ी,
मुझ जैसे मुफ़लिस न जाने दो दिलों का मेल ।

कीमत कौन चुकाता है ज़माने में इश्क़ की,
कुछ नीलाम हुए है, और कुछ का मुक्कमल कमा बाकी है ।

मिलता कहाँ है आशिक़ मुझसा अभिनव,
जिसको, कीमत-ए-जान भी कोई मोल नहीं ।

मेरी तो आरज़ू-ए-इश्क़ है बस इतनी,
कि, जितनी भी सांसें लूं, बस तेरी हो ।

गर्दिश-ए-इश्क़ भी कैसा यारों,
कि, खुद की साँसों पर ही गुमां नहीं ।

उसने आँखों से पिला कर दीवाना बना दिया,
वर्ना, आदमी तो हम भी काम के थे कभी ।

कौन कमबख्त जीता है किसी यार को सताने को,
हम तो बस ज़िन्दा है, उसका प्यार पाने को,
आतिश-ए-इश्क़ की भी देखी हमने,
पर, उस सा नहीं मिला रूह जलाने को ।

भीगे तो वो भी मेरी तिश्नगी में अभिनव,
इतना भी गिला-ए-गम छूटा नहीं ।

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