इतने आशिक़ है यहाँ,
ये इश्क़ का कारोबार अच्छा है ।
आज कल खरीदार अच्छे मिलते है ।
बड़ी कीमत लगा खरीदी जाती है आशिक़ी,
मुझ जैसे मुफ़लिस न जाने दो दिलों का मेल ।
कीमत कौन चुकाता है ज़माने में इश्क़ की,
कुछ नीलाम हुए है, और कुछ का मुक्कमल कमा बाकी है ।
मिलता कहाँ है आशिक़ मुझसा अभिनव,
जिसको, कीमत-ए-जान भी कोई मोल नहीं ।
कि, जितनी भी सांसें लूं, बस तेरी हो ।
गर्दिश-ए-इश्क़ भी कैसा यारों,
कि, खुद की साँसों पर ही गुमां नहीं ।
उसने आँखों से पिला कर दीवाना बना दिया,
वर्ना, आदमी तो हम भी काम के थे कभी ।
कौन कमबख्त जीता है किसी यार को सताने को,
हम तो बस ज़िन्दा है, उसका प्यार पाने को,
आतिश-ए-इश्क़ की भी देखी हमने,
पर, उस सा नहीं मिला रूह जलाने को ।
भीगे तो वो भी मेरी तिश्नगी में अभिनव,
इतना भी गिला-ए-गम छूटा नहीं ।
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