Monday, July 29, 2013

कुछ बेज़ुबान से…

आदत-ए-शराब ही अच्छी थी,
क्यूंकि, बहुत मुफ़लिसी है इस दिल्लगी में ।

लम्हा-ए-उम्र ही न मिला दिल्लगी को,
वर्ना, आशिक़ तो हम भी उम्दा थे ।

मिली, किसको वफ़ाये है ज़माने में,
हर एक ही मारा है किसी गम का ।


लिपटे थे रात की सरगोशी में,
और सुबह तारों का काफ़िला गुज़र गया ।

और वो दिन भी आ गया जिसकी आस लिए जीते थे,
तेरी आरज़ू में एक और साल जी लिया ।

आतिश-ए-इश्क़ में आज वो भी जले,
जो कल तक काफ़िर बने फिरते थे ।

एक दिन बिखर ही जाता है,
तिल-तिल कर मरने वाला ।

बड़ी बदरंग सी ज़िन्दगी है तेरे जाने के बाद,
इतनी मह्रूमियत कभी खुद से न हुई ।

नफ़रत, किसकी अच्छी है यहाँ अभिनव,
हम तो ज़िन्दा है इक मोहोब्बत के लिए ।

थोड़ा लिखता हूँ, कम लिखता हूँ,
आज-कल लफ़्ज़ों से दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।

अपनी हसरतों को ख़त्म करके,
मैंने खुद को मनाना सीख लिया ।

उल्फ़त-ए-इंतज़ार ख़त्म ही नहीं होता,
जाने क्या है मोहोब्बत ऐसी ।

उधारी का मंज़र भी क्या खूब था,
एक रोज़ ऐसा भी गुज़रा, जिसमे रूह भी गिरवी हो गयी ।

 कैसे रोकू मैं अपने दिल को,
जाने क्यूँ तेरी ओर खीचने लगा है ये ।

तकलीफ़ सिर्फ़ इतनी सी ही हुई,
कि, वो उन गैरों से मिले जो उन्हें अपने से लगे ।

बना लो आशिक़ हमको भी,
कोई तो सच्चा मुरीद तुमको भी मिले ।

 किसी को रंजिशें मिली, किसी को वफ़ा,
ये इश्क़ बहुत ही बद-किस्मतों का हुआ ।

आ ही जायेगी नींद देर-सवेर,
अब रातों को जागने के आदी हो गए है हम ।

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