क्यूंकि, बहुत मुफ़लिसी है इस दिल्लगी में ।
लम्हा-ए-उम्र ही न मिला दिल्लगी को,
वर्ना, आशिक़ तो हम भी उम्दा थे ।
हर एक ही मारा है किसी गम का ।
लिपटे थे रात की सरगोशी में,
और सुबह तारों का काफ़िला गुज़र गया ।
और वो दिन भी आ गया जिसकी आस लिए जीते थे,
तेरी आरज़ू में एक और साल जी लिया ।
आतिश-ए-इश्क़ में आज वो भी जले,
जो कल तक काफ़िर बने फिरते थे ।
एक दिन बिखर ही जाता है,
तिल-तिल कर मरने वाला ।
बड़ी बदरंग सी ज़िन्दगी है तेरे जाने के बाद,
इतनी मह्रूमियत कभी खुद से न हुई ।
नफ़रत, किसकी अच्छी है यहाँ अभिनव,
हम तो ज़िन्दा है इक मोहोब्बत के लिए ।
थोड़ा लिखता हूँ, कम लिखता हूँ,
आज-कल लफ़्ज़ों से दिल्लगी अच्छी नहीं लगती ।
अपनी हसरतों को ख़त्म करके,
मैंने खुद को मनाना सीख लिया ।
उल्फ़त-ए-इंतज़ार ख़त्म ही नहीं होता,
जाने क्या है मोहोब्बत ऐसी ।
उधारी का मंज़र भी क्या खूब था,
एक रोज़ ऐसा भी गुज़रा, जिसमे रूह भी गिरवी हो गयी ।
कैसे रोकू मैं अपने दिल को,
जाने क्यूँ तेरी ओर खीचने लगा है ये ।
तकलीफ़ सिर्फ़ इतनी सी ही हुई,
कि, वो उन गैरों से मिले जो उन्हें अपने से लगे ।
बना लो आशिक़ हमको भी,
कोई तो सच्चा मुरीद तुमको भी मिले ।
किसी को रंजिशें मिली, किसी को वफ़ा,
ये इश्क़ बहुत ही बद-किस्मतों का हुआ ।
आ ही जायेगी नींद देर-सवेर,
अब रातों को जागने के आदी हो गए है हम ।
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