करुणा की विरह लगी थी,
एक बेटी की दुविधा बड़ी थी,माँ से कैसे बोले,
कि सुन लो मेरी बात,
उस दिन उलझे थे हालात, जो वक़्त पर मैं न आई,
गिरते-पड़ते पहुंची मैं, मुरझाई-सकुचाई,
पर देख कर मेरा चेहरा भी, तुम जान तभी न पाई,
तीन दिवस तो बीत गए, एक आवाज़ भी न लगाई,
मैं, बीते दिन से गुम-सुम सी, तुम्हे नज़र भी मैं न आई,
बस छोटे को गले लगा कर, तुम यूँ ही मुस्काई,
एक बेटी की दुविधा बड़ी थी,
करुणा की विरह लगी थी,
माँ से कैसे बोले,
की सुन लो मेरी बात ।
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