Saturday, April 6, 2013

महफ़िल-ए-आलम...

दौर-ए-शरीक़ भी हुए हाल-ए-दिल मेरे,
पर, आँसू बहाने की वजह न मिली ।

मौसकी में ही सही, जिंदा है महफिलों में,
वर्ना साकी (इश्क़) ने तो कबका मार दिया था ।

बहुत बेचैनी हुई जब तुझको दूर जाते देखा,
दिल में आह और कानों में तेरे लौट आने के वादे गूंजते रहे ।

एहसास-ए-कूबत भी देखी करके, कुछ गमज़र्द भी रहे,
मंसूब-ए-मोहोब्बत का फ़कत कोई वफ़ा न मिला ।

हालात-ए-दिल परवाने का, ख़ाक-ए-ख़त्म से हुआ,
इश्क़ में मारे फिरता था, एक बे-जान फूल पर ।

मोहोब्बत क्यूँ हुई मुरझाये फूल से,
राज़-ए-मोहोब्बत अब तक न खुला,
ता-उम्र जिये उर्स-ए-मोहोब्बत में,
पर जो चाहा वो न मिला ।

No comments:

Post a Comment