दौर-ए-शरीक़ भी हुए हाल-ए-दिल मेरे,
पर, आँसू बहाने की वजह न मिली ।मौसकी में ही सही, जिंदा है महफिलों में,
वर्ना साकी (इश्क़) ने तो कबका मार दिया था ।
बहुत बेचैनी हुई जब तुझको दूर जाते देखा,
दिल में आह और कानों में तेरे लौट आने के वादे गूंजते रहे ।
मंसूब-ए-मोहोब्बत का फ़कत कोई वफ़ा न मिला ।
इश्क़ में मारे फिरता था, एक बे-जान फूल पर ।
राज़-ए-मोहोब्बत अब तक न खुला,
ता-उम्र जिये उर्स-ए-मोहोब्बत में,
पर जो चाहा वो न मिला ।
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