कभी ख्वाहिशों में जिया तुझे,
अब, तुझ में सिमट कर रह गए है हम,
हमे जगाने की जिरह न कर ।
पर वो न मिला जो उम्मीद-ए-दिल था ।
ज़िरह कीजे भी तो क्या कीजे,
इश्क़-ए-आरज़ू लिए फिरते है वीराने में ।
पर वो न मिटा, जो दिल में गिला था ।
बदलना, फ़ितरत-ए-आम है लोगों में,
तुम न बदलों तो लोगों को गुरेज़ नहीं ।
वक़्त बदलता है, हालात बदलते है,
लोग बदलते है, जज़्बात बदलते है,
कभी, मोसकी से मातम के तराने बदलते है,
और कभी साथ-साथ चलते हुए अफ़साने बदलते है ।
सावन के बादल है, अन्दर, पतझड़ मौसम है ।
बे-ख़याली का मंज़र यूँ भी होगा सोचा न था ।
कोई अपना सा देख रहा न गया ।
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