Tuesday, April 30, 2013

कभी...

कभी आयतों में लिखा तुझे,
कभी ख्वाहिशों में जिया तुझे,
अब, तुझ में सिमट कर रह गए है हम,
हमे जगाने की जिरह न कर ।

ख्वाहिशों का पुलिंदा भी उछाला हवा में,
पर वो न मिला जो उम्मीद-ए-दिल था ।

ज़िरह कीजे भी तो क्या कीजे,
इश्क़-ए-आरज़ू लिए फिरते है वीराने में ।

शिकायतें भी की तुझसे, इनायतें भी की तुझसे,
पर वो न मिटा, जो दिल में गिला था ।

बदलना, फ़ितरत-ए-आम है लोगों में,
तुम न बदलों तो लोगों को गुरेज़ नहीं ।

वक़्त बदलता है, हालात बदलते है,
लोग बदलते है, जज़्बात बदलते है,
कभी, मोसकी से मातम के तराने बदलते है,
और कभी साथ-साथ चलते हुए अफ़साने बदलते है ।

खुश हूँ पर खुश नहीं जाने क्यूँ गम है,
सावन के बादल है, अन्दर, पतझड़ मौसम है ।

एक अजीब सा मातम है छाया सारे सब्ज़-बाग़ में,
बे-ख़याली का मंज़र यूँ भी होगा सोचा न था ।

आईना देख, आज रोया मैं भी,
कोई अपना सा देख रहा न गया ।

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