Thursday, June 12, 2014

अपने करम...

अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी,
मैं तो तनहा था कल भी आज भी,
पर तू ही जीने की वजह थी,
पल कैसे गुजारु तुझ बिन,
तुझ बिन ज़िन्दगी बेवजह थी,
अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी ।

कैसी ये खुदाई थी,
जो तुझसे हुई जुदाई थी,
मेरी ज़िन्दगी तुझ बिन,
बस यूँ ही बेवजह थी,
मैं तो तन्हा था कल भी आज भी,
पर तू ही जीने की वजह थी,
अपने करम की ही वजह थी,
जो तू मुझसे खफ़ा थी ।।

कितना मुश्किल था...

कितना मुश्किल था उसके लिए जिंदा रहना,
जो वो चलती रेल के आगे कूद गया,
क्या प्यार नहीं मिला,
या अपना कोई रूठ गया,
भीड़ लगी थी लोगों की,
और ज़िन्दगी का तार था टूट गया,
कितना मुश्किल था उसके लिए जिंदा रहना,
जो वो चलती रेल के आगे कूद गया ।

एक कलाम कहता हूँ...

चलो आज एक कलाम कहता हूँ,
कुछ अधूरा सा उसके नाम कहता हूँ,
जो छोड़ गया था तन्हा राहों में,
दर्द की आह न सुनी अपनी चाहों में,
कुछ तन्हा, कुछ बेनाम कहता हूँ,
चलो एक कलाम कहता हूँ ।

आँखों के दरिया में डूबा रहता हूँ,
वो होगी मेरी हर पल ये कहता हूँ,
भीड़ में क्यूँ तन्हा रहता हूँ,
फिर क्यूँ मुझसे "मैं" ही दूर रहता हूँ,
चलो एक कलाम कहता हूँ,
कुछ अधूरा सा उसके नाम कहता हूँ ।।

रेशम सी किरणें...

डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
रेशम सी किरणें लायी थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।

मैं भूखा-प्यासा बैठा था,
कुंठित मन कुछ ऐसा ऐठा था,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।

मैं बैठा था बस कलम लिए,
लफ़्ज़ों के कुछ थे घूट पिए,
शायद मुझसे कुछ कहने को,
वो सुबह लौट-लौट के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
चिड़ियों की ची-ची लायी थी,
कानों ने जैसे शहद घुले,
मन के थे कुछ पंख खुले,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।।

माँ...

माँ ने सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी,
दो अश्क़ बहा कर,
मेरे मन में आस जगा दी थी,
लड़ मैं रहा था साँसों से,
चोटिल वो हो जाती थी,
रो-रो कर मुझको,
तन से यूँ लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में झल्लाती थी,
मुझे तड़पता देख कर,
रोते में चिल्लाती थी,
दो अश्क़ बहा कर,
लिखने की आस जगा दी थी,
माँ ने सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी ।

वो पलट-पलट कर देखे मुझको,
गुस्से में चिल्लाती थी,
सांसें जो उखड़े मेरी,
तो धीरे से सहलाती थी,
भर कर ममता का दामन,
मुझे सीने से लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में चिल्लाती थी ।।

मैं रातों में बैठा रहता,
माँ से ये वादा कहता,
ध्यान रखूँगा अपना,
क्यूँ है तुमको जगना,
वो कहती कान पकड़ मेरा,
माँ हूँ, तू लाड़ला अपना,
और कह कर इतना,
गुस्से में रो जाती थी,
भर कर ममता का दामन,
मुझे सीने से लगाती थी,
बस नहीं चलता जो मुझ पर,
तो गुस्से में चिल्लाती थी,
माँ ने सुबह-सुबह उठ कर,
एक लम्बी डांट लगा दी थी ।।।

सांसें...

सांसें पेश्तर थी,
ज़ख्म और गहराने लगे,
बातों में कुछ यूँ,
खून के छीटे आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।

ज़िन्दगी की हवस कमज़ोर पड़ने लगी,
सांसें रह-रह कर शोर करने लगी,
कलम, स्याही छोड़ चलने लगी,
आँखें भी अंत के इंतज़ार में थकने लगी,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।

उम्र का पड़ाव कुछ भी न था,
तुम...तुम थे, मैं, मैं भी न था,
यादों के साये लहराने लगे,
ज़ख्म नासूर नज़र आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।।

कश्मकश-ए-लफ्ज़...भाग 2

न कुछ ख़ास…
न कुछ ख़ास होता है,
न कोई ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है,
उम्मीदों के घरों में,
कई बुझे चिराग है,
कुछ बुझा दिए मैंने,
तो कुछ बुझ्तों की निशानी है,
न कुछ ख़ास होता है,
न कुछ ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है ।।

हालात…
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है,
कुछ उलझे-उलझे से ख्यालात रहते है,
शायद टूट रहा हूँ मैं,
इसलिए उलझे से हालात रहते है,
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है ।

लिखने की अदा…
लिखने की अदा को मेरा दर्द मान लेते है,
कुछ कहना चाहो और कुछ जान लेते है,
लफ़्ज़ों का पुलिंदा भी खूब उछालते है दोस्त मेरे,
मेरे लफ़्ज़ों को ही मेरा दर्द मान लेते है ।

कह कर…
कोई छोटा कह कर दिल से लगा लेता है,
कोई बड़ा कह कर दूर भगा देता है,
कैसा दस्तूर है दुनिआ का अभिनव,
न दिल से मिलता है, न दिल को मिला देता है ।

दौड़ में…
मंज़िलों की दौड़ में कारवां बदलते गए,
कभी मैं बदलता गया, कभी लोग बदलते गए,
सुख-दुःख का आना जाना रहा,
कुछ वक़्त बदलता गया, कुछ शौक़ बदलते गए ।

मकां…
मैं मकान बदलता रहा मंजिलों की ख़ातिर,
और मेरा ही मकां न रहा,
"मैं" मैं तो रहा तन्हा-तन्हा,
पर जो रहा उसका मकां न रहा ।

नज़रों से…
इस बेबंकी से वो नज़रों से इज़हार करते है,
छुप-छुप कर हम पर नज़रों से वार करते है,
घायल कर देते है दिल मेरा,
और, कहते है हम आपसे इश्क़ का इज़हार करते है ।

लम्हा…
बड़ा कमज़र्फ था वो लम्हा,
जब कहा कि हमे अलग होना पड़ेगा,
मैं भी जानता था और वो भी,
कि, जिस्म जुदा होते है रूहें नहीं ।