Thursday, June 12, 2014

कुछ यूँ ही...भाग 2

ता-उम्र बुरा बनता रहा मैं उसके इश्क़ में,
जब रश्क़ हुआ तो जाना की कितनी भूल हुई ।

क्यूँ निकलना नहीं चाहता पुरानी तकलीफ़ों से,
जाने क्यों ये दर्द भरी ज़िन्दगी मुझको अच्छी लगती है ।

अधूरी सी ख़्वाहिश लिए चल रहा हूँ, श्रद्धा की चाह में,
तुम ज़िन्दगी दो या मौत, मेरे खुदा अब ये तुम पर है ।

आवारगी में था तो अच्छा था ए दोस्त,
बिगड़ गया हूँ जबसे महोब्बत हो गयी ।

कोई क़त्ल कर दे मेरा ए खुदा,
खुद से रुख़सत हो कर ज़िन्दगी अच्छी लगती नहीं ।

तकलीफ़ हुई जब मैं कह गया, कि, हर मोड़ मिले मोहब्बत वाले,
पर कोई मुझसा न मिले, तुम पर पल-पल मरने वाला ।

अब और लड़ने की हिम्मत नहीं है ए खुदा,
हो सके तो इस ज़िन्दगी से रुख़सत दे दे ।

क़त्ल मेरे अरमानों का हुआ यूँ इस कदर,
कि, मैं हँसता भी रहा और रो न सका ।

क़त्ल सा कर गए उसके लफ्ज़,
और मैं, बस यूँ देखता रहा ।

जाते-जाते उसने मुनासिब न समझा ये कहना,
कि, हो सके तो सो जाना इत्मीनान से ।

मरता क्या न करता मोहोब्बत के सिवा,
मुझको ये बेवजह की ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती ।

बस रहने दे मुझको "मुझ" तक,
तुझ में रहता हूँ तो तकलीफ़ होती है अभिनव ।

आख़िर, चुभ गए वो लफ्ज़ भी,
काश! ख़ंजर होता ।

पत्थर सा ही सही, कोई मिलता मुझे,
अब दिलवालों से दिल्लगी होती नहीं मुझसे।

फिर से ला खड़ा किया मुझे उस ही दो-राहे पर,
न ज़िन्दगी मिली मुझे, न मौत नसीब हुई ।

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