Thursday, June 12, 2014

कुछ यूँ ही...भाग 1

कोई तो समझ ले हालत मेरी,
दर्द का मारा हूँ टूटा तनहा सा ।

आज, कर दिया खुद से खुद को जुदा,
अब तू कभी मुझसे उदास न होगी ।

कोई नहीं रहता इस शहर में,
बस, एक आशिक़ की रूह तड़पती है ।

हालात-ए-इश्क़ में इतना गिर गया हूँ मैं,
आईने में देखता हूँ तो कितना "छोटा" नज़र आता हूँ ।

कैसे गुज़रता है लम्हा-लम्हा तुम बिन,
ये मैं जानता हूँ या वक़्त जानता है ।

जाने क्या दर्द था आँखों को,
जो, सिसकती रही रात आहिस्ता-आहिस्ता ।

रह-रहकर गुज़री है मौत मुझे,
वाह री मेरी मोहब्बत, तेरा भी क्या कहना ।

तोड़ दो ये साँसों की डोर भी,
ये ज़िन्दगी अब मुझे अच्छी लगती नहीं ।

बोल भी न फूटे मुंह से,
जाने क्यूँ ऐसी उदासी छायी है ।

दिल के नासूरों से जिस्म के ज़ख्म अच्छे है,
कम से कम देख कर सुकूं-ए-नज़र होता है ।

ख़ाक मोहब्बत कर ली मैंने,
इक सज़ा सी काट रहा हूँ जैसे ।

गैरों से हँस कर बातें करते है वो,
मुझसे अब बातें शायद अच्छी नहीं लगती ।

कह दिए लाखों क़सीदे दिल के,
पर, उन पर फ़र्क न पड़ा ज़माने जैसा ।

उसकी आँखें खोजती रही सुबह का मकां,
और यूँ ही इस तरह रात गुज़र गयी ।

छुपा लूं दुनिया भर की नज़रों से,
कोई और न देखे तुझको, बस मेरे सिवा । 

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