Thursday, June 12, 2014

सांसें...

सांसें पेश्तर थी,
ज़ख्म और गहराने लगे,
बातों में कुछ यूँ,
खून के छीटे आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।

ज़िन्दगी की हवस कमज़ोर पड़ने लगी,
सांसें रह-रह कर शोर करने लगी,
कलम, स्याही छोड़ चलने लगी,
आँखें भी अंत के इंतज़ार में थकने लगी,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।

उम्र का पड़ाव कुछ भी न था,
तुम...तुम थे, मैं, मैं भी न था,
यादों के साये लहराने लगे,
ज़ख्म नासूर नज़र आने लगे,
बोझ बन गया था जिस्म,
तार, टूटते नज़र आने लगे,
सांसें पेश्तर थी,
और ज़ख्म गहराने लगे ।।।

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