Thursday, June 12, 2014

रेशम सी किरणें...

डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
रेशम सी किरणें लायी थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।

मैं भूखा-प्यासा बैठा था,
कुंठित मन कुछ ऐसा ऐठा था,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।

मैं बैठा था बस कलम लिए,
लफ़्ज़ों के कुछ थे घूट पिए,
शायद मुझसे कुछ कहने को,
वो सुबह लौट-लौट के आई थी,
साथ में अपने संग-संग,
चिड़ियों की ची-ची लायी थी,
कानों ने जैसे शहद घुले,
मन के थे कुछ पंख खुले,
वो भोग-विलास की सब माया,
छोड़-छाड़ के आई थी,
पों फटते ही नभ घटा से,
सोने की चादर लायी थी,
डगरी-डगरी, नगरी-नगरी,
वो छनक-छनक के आई थी ।।।

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