Thursday, June 12, 2014

कश्मकश-ए-लफ्ज़...भाग 2

न कुछ ख़ास…
न कुछ ख़ास होता है,
न कोई ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है,
उम्मीदों के घरों में,
कई बुझे चिराग है,
कुछ बुझा दिए मैंने,
तो कुछ बुझ्तों की निशानी है,
न कुछ ख़ास होता है,
न कुछ ख़ास कहानी है,
ये दिन भी कुछ ख़ास नहीं,
बस आम सी ज़िन्दगानी है ।।

हालात…
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है,
कुछ उलझे-उलझे से ख्यालात रहते है,
शायद टूट रहा हूँ मैं,
इसलिए उलझे से हालात रहते है,
बड़ी नासाज़ी के हालात रहते है ।

लिखने की अदा…
लिखने की अदा को मेरा दर्द मान लेते है,
कुछ कहना चाहो और कुछ जान लेते है,
लफ़्ज़ों का पुलिंदा भी खूब उछालते है दोस्त मेरे,
मेरे लफ़्ज़ों को ही मेरा दर्द मान लेते है ।

कह कर…
कोई छोटा कह कर दिल से लगा लेता है,
कोई बड़ा कह कर दूर भगा देता है,
कैसा दस्तूर है दुनिआ का अभिनव,
न दिल से मिलता है, न दिल को मिला देता है ।

दौड़ में…
मंज़िलों की दौड़ में कारवां बदलते गए,
कभी मैं बदलता गया, कभी लोग बदलते गए,
सुख-दुःख का आना जाना रहा,
कुछ वक़्त बदलता गया, कुछ शौक़ बदलते गए ।

मकां…
मैं मकान बदलता रहा मंजिलों की ख़ातिर,
और मेरा ही मकां न रहा,
"मैं" मैं तो रहा तन्हा-तन्हा,
पर जो रहा उसका मकां न रहा ।

नज़रों से…
इस बेबंकी से वो नज़रों से इज़हार करते है,
छुप-छुप कर हम पर नज़रों से वार करते है,
घायल कर देते है दिल मेरा,
और, कहते है हम आपसे इश्क़ का इज़हार करते है ।

लम्हा…
बड़ा कमज़र्फ था वो लम्हा,
जब कहा कि हमे अलग होना पड़ेगा,
मैं भी जानता था और वो भी,
कि, जिस्म जुदा होते है रूहें नहीं ।

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