Thursday, June 12, 2014

कुछ यूँ ही...भाग 4

हर कोई अदा करता है फ़र्ज़-ए-अजनबीपन का यहाँ,
कोई अभिनव नहीं मिलता दिल से इश्क़ करने वाला । 

बड़ी परेशानियों को भी तू हँस कर मना लेती है,
ए माँ मैं तेरा क्या शुक्रिया-अदा करूँ ।

एक दिली मशवरा देता हूँ रख लीजिये,
यूँ मेरे लफ़्ज़ों से इतनी दिल्लगी अच्छी नहीं ।

थक कर गुज़र ही गया दिन भी मेरा,
मानो थम-थम कर गुज़री हो ये ज़िन्दगी ।

इश्क़ का फ़ितूर भी कितना अच्छा था अभिनव,
कि, हँसते भी रहा मैं और रो भी न सका । 

बहुत चोटें खाई है इस नन्हे से दिल पे,
फिर भी टूट कर बिखरता नहीं ।

सफ़र-दर-सफ़र चलता रहा दुआओं का सिलसिला,
बस मैं ही नहीं मिला इस सफ़र में । 

मिल ही जाते है सफ़र में दुआ-सलाम वाले,
पर वो नहीं मिलता जिस से दिल मिला हो ।

ढल जाना चाहता हूँ उस सूरज की तरह,
जो कल न निकले फिर सुबह के लिए ।

रिश्ता पुराना है गम से मेरा,
यूँ नहीं पथराई है आँखें मेरी । 

छुपा बैठा मुझसे नज़रें वो ऐसे,
जैसे बरसों का रो कर आया हो ।

कितना लम्बा है ये सफ़र,
चार कन्धों की ख़ातिर ।

क्यूँ मौत भी नहीं मुनासिब मुझे,
क्या ज़िन्दगी के इतने गुनाह है मुझ पर ।

तुम न भुगतो वो ज़ख्म कभी,
जो मैं जी रहा हूँ लम्हा-लम्हा ।

हालात-ए-इश्क़ पर किसका कहाँ ज़ोर है अभिनव,
हर कोई छलता है यहाँ इक दिल्लगी की ख़ातिर । 

खुश हो जाता हूँ जब भी मिलता हूँ,
तुझसे मिल कर एक अजब सा एहसास होता है । 

है कमबख्त़ न-समझो का शहर,
इक मैं ही यहाँ लफ्जों का भरा ।

बहुत से मंज़र गुजरेंगे सर-ए-राह में,
फिर भी चलते रहना ही ज़िन्दगी है ।

बहुत मुफ़लिसी से गुज़रे है बेज़ारी के दिन भी,
कुछ मेरे गुनाह, कुछ तेरे करम है कि जिन्दा हूँ ।

बड़ी आरज़ू में गुज़री थी वो रात,
फ़कत तेरे लफ़्ज़ों की ख़ातिर ।

वो पूछते है मेरे लिखने का सबब,
और मैं कहता हूँ की ये उसकी (खुदा) खता है । 

बड़ा तन्हा होता है एक-एक लम्हा तुझ बिन,
ये मैं नहीं मेरी तन्हाई कहती है ।

बहुत नुक्सान है दिलों की सौदेबाज़ी में,
कोई आशिक़ नहीं देखा यहाँ खुश होते हुए । 

सूरत से नहीं सीरत से तौलो अभिनव,
मैं बिकता नहीं बाज़ारों में आसानी से । 

मैं कह लेता हूँ तुमसे दिल की बात,
क्यूंकि, दिल...दिल है, चेहरा नहीं । 

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