Thursday, June 12, 2014

कुछ यूँ ही...भाग 3

क्या वजह थी अश्क़ों के बहने की,
दिल ही तो दुखा था थोड़ा सा ।

कैसे समझाऊँ तुझे कि तू क्या है,
सांसें रुक जाती है मेरी, तेरे न होने पर ।

क्यूँ यादों का ज़िक्र छेड़ दिया उसने,
मैं, तन्हा था तो अच्छा था ।

करवटों-करवटों में गुज़र गयी रात,
फिर भी उस सुबह की प्यास न बुझी ।

फिर से दर्द का कारोबार कर लिया मैंने,
पहले, मुफ़लिस था तो अच्छा था ।

कहीं दफ़न न हो जाऊं मैं,
इक तेरी बेरुख़ी के चलते ।

बहुत तकलीफ़ में चल कर गया वो ऐसे,
जैसे तड़पता दिल छोड़ गया हो कोई ।

एक चाह उठी कि छोड़ दूं ये लड़-खड़ाती सांसें,
पर ख़्याल उठा, अभी और दुःख झेलने बाकी है अभिनव ।

ख़ाक है भरोसा जो करता नहीं,
कैसे तोडूं खुद को, मैं भी मरता नहीं ।

इतना सा ही आसरा दे जाते...जाते-जाते,
कि, हकीक़त में न सही ख़्वाब में मिला करेंगे ।

गुनाहगार हूँ बहुत सी भूलों का,
गर हो सके माफ़ कर देना ।

यादों का भी क्या कमबख्त़ कारोबार है,
तन्हा होते ही घेर लेती है अभिनव ।

लम्हे-लम्हे गुज़ारे है तन्हाई की राह में,
कि, किसी रोज़ वो पलट लौट आयेंगे वापस ।

यूँ ही पत्थर-दिल नहीं हुआ अभिनव,
बहुत सी चोटें खायी है दिल पर ।

आँखें थक गयी राह तकते-तकते,
अब तो आ जाओ मेरे सामने ।

रात भर सो न सका इस ख़्याल में,
कि, किस पल आ जायेंगे वो सुबह ख़्वाब में ।

बहुत ठोकरें खा कर चलना सीखा है मैंने,
मेरे गिर कर उठने की दांस्ता उन रास्तों से पूछो ।

क्यूँ प्यार की यही ख़ता है,
कि, सजाए भी मेरी और तकलीफ़ भी ।

टूट कर रोया हूँ रात भर,
वजह, सिर्फ रात जानती है या आँखें ।

सो जाना चाहता हूँ कुछ दिनों के लिए,
एक रोज़ उठूँगा फिर नया दिल ले कर ।

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