Thursday, June 12, 2014

कुछ यूँ ही...भाग 5

हर एक राह में मिलता हूँ तुझसे (खुदा),
"मैं" मुसाफ़िर हूँ या तू है हर जगह?

हालात-ए-हौसला हर मुमकिन है अभिनव,
गर जो ठान लून चलने की ।

हाल-ए-दिल न पूछो किसी से,
निकम्मे हज़ारों है शहर में ।

लफ्ज़ उछल पड़ते है देखते ही उसको,
ये मैं नहीं उसकी अदा बोलती है ।

दर्द की नुमाइश न की कभी अभिनव,
वो तो बस उस-उसने दिया जो मेरा अपना था ।

मैं ही हुआ हर कोफ़्त की वजह,
मेरी दिल्लगी को शक़ की शुबा समझी ।

कौन जीता है यहाँ ज़माने के लिए,
हर एक फ़ना हुआ है किसी की ख़ातिर ।

आईना-ए-दिल्लगी का यूँ टूटा अभिनव,
अब तक जो गोया सच्चा था वो ही झूठा निकला ।

अजब सी कशमकश है ज़िन्दगी,
गम के आंसू तो है पर बहते नहीं ।

दर्द की वफ़ाये भी रूठी मुझसे,
कुछ इस तरह आशिक़ी मिली मुझको ।

रो लिया उस से लिपट कर वो ऐसे,
जैसे मुद्दत बाद मिला हो कोई अपना ।

अजीब की कशमकश है ज़िन्दगी,
दर्द भी देता हूँ और तकलीफ़ भी होती है ।

कितनी लम्बी होती है ये रात,
ये मैं जानता हूँ या मेरा दर्द ।

मलाल ये न था कि मैं हारा,
पर लड़ा जिसको हमनफज़ वो ही बागी निकला ।

एक सलीके से हुआ क़त्ल मेरा,
न आह निकली न हश्र हुआ ।

मोम सा कर दिया उसके इश्क़ ने,
कभी मैं भी पत्थर सा हुआ करता था अभिनव ।

काश! जिस्म की तरह मैं भी जल जाता,
फिर कोई दर्द न होता दिल्लगी का ।

पल-पल ऐसे गुज़रा है तुझ बिन,
जैसे मौत रुक-रुक के आई हो ।

जब-जब दर्द हुआ, अश्क़ छुपा लिए,
लोग कहते है मुझको हँसने की आदत हो गयी ।

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